SRFINDIA
  • Home
  • About us
  • Research
  • Gallary
  • Centers
  • Blogs
  • Events
  • Contact us
What's Hot

भारतीय भाषाओं की एकात्मता और पं. दीनदयाल उपाध्याय

April 8, 2022

घटता उत्पादन, बढ़ती बेरोजगारी और आत्मविश्वास से भरी सरकार

April 8, 2022

जान के साथ जहान भी संकट में!

April 8, 2022
Facebook Twitter Instagram
  • Home
  • About us
  • Research
  • Gallary
  • Centers
  • Blogs
  • Events
  • Contact us
Facebook Twitter YouTube
SRFINDIASRFINDIA
  • Home
  • About us
  • Research
  • Gallary
  • Centers
  • Blogs
  • Events
  • Contact us
SRFINDIA
Home » Blog » सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और समसामयिक वातावरण
Development Studies
Blog

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और समसामयिक वातावरण

adminBy adminMay 17, 2020Updated:April 24, 2022No Comments9 Mins Read
Share
Facebook Twitter LinkedIn Pinterest Email

SRFIndia @24 April ,2020

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और समसामयिक वातावरण : डॉ. विवेक कुमार निगम, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज           

 रिपोर्ट : डॉ अवधेश प्रताप सिंह , सहायक प्रोफेसर संस्कृत विभाग , दिल्ली विश्वविद्यालय

       डॉ विवेक कुमार निगम (उपाचार्य, अर्थशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज) ने अपने वक्तव्य का आरम्भ करते हुए कहा कि राष्ट्रवाद की भारतीय अवधारणा एवं शेष विश्व की अवधारणा के  भेद को स्पष्ट कर लेना समीचीन एवं उपयोगी है । राष्ट्र की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं; कुछ परिभाषाएं ऐसी हैं जो विजित राष्ट्र की हैं यानी जो राष्ट्र प्रयासपूर्वक निर्मित किये गए हैं जैसे ब्रिटिश साम्राज्य एवं यूरोप के अन्य देशों द्वारा आक्रमणविधि से निर्मित राष्ट्र । इसको ध्यान में रखकर एक परिभाषा दी गई – एक राज्य जिसमे अनेक राष्ट्रीयता के लोग रहते हो और साथ में कह दिया गया कि जिसमे कुछ जनजातियाँ भी रहती हो । 19वीं शताब्दी में यूरोप के चिन्तकों ने वहाँ की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए राष्ट्र की परिभाषा की जैसे जे. एस. मिल ने ‘राष्ट्र-राज्य’ तथा ‘सम्प्रभु राज्य’  का विचार रखा । हम यह देखते हैं कि पश्चिमी देशों की जो परिभाषाएं आईं, जो कि हमारी पाठ्यपुस्तकों में है तथा जिसे विद्यार्थी, शिक्षक एवं  शोधार्थी पढ़ते आ रहे हैं; लम्बे समय से वे परिभाषाएं राष्ट्र और राज्य को एक समानार्थी के तौर पर देखने की अभ्यस्त हैं। किन्तु भारत में राष्ट्र को लेकर जो संकल्पना रही उस संकल्पना में अनेक बिन्दुओं को सम्मिलित किया गया जिसमें सबसे महत्तवपूर्ण बात यह रही कि राष्ट्र की पहचान में संस्कृति को प्रमुखता दी गई । संस्कृति के लिए एक समाज तथा समाज के लिए एक भूभाग का होना अनिवार्य है । एक भूभाग में रहने वाले मूलनिवासी तथा इनके पूर्वज एक ही हैं, ऐसा स्वाभाविक है . यह भी स्वाभाविक है कि एक ही पूर्वजों से विकसित समाज के शत्रु-मित्र भाव भी एक समान होंगे । इस समाज में भ्रातृत्व का भाव भी आवश्यक रूप से होता है है । ये सभी बिन्दु जो भारत में राष्ट्र के स्वरूप में दिखाई देते हैं ; इसमें राज्य को राष्ट्र से बड़ा नहीं माना गया अपितु एक राष्ट्र में कई राज्य हो सकते हैं । राज्य एक राजनीतिक व्यवस्था है जो उस भूभाग में रहने वाले लोगों के आर्थिक, सामाजिक, भौतिक आदि कल्याण के दृष्टिकोण से बनायीं गई है ।

          भारत में राष्ट्र की संकल्पना यूरोप के राष्ट्र की संकल्पना से व्यापक भी है और भिन्न भी है . इसकी भिन्नता का मूल कारण है- सांस्कृतिक तत्त्व का महत्त्व या सांस्कृतिक तत्त्व की भूमिका । यदि हम संस्कृति के स्वरूप पर विचार करें तो हम देखते हैं कि पश्चिमी देशों में  में कल्चर और सिविलाइज़ेशन का घालमेल कर दिया गया किन्तु संस्कृति इससे कहीं अधिक गहरी और प्रभाव रखने वाली है । संस्कृति सृजित नहीं होती अपितु स्वत: विकसित होती है । संस्कृति आत्मा तत्त्व है जिसके विकास की प्रक्रिया में खान-पान के तरीके, पहनावा, भाषाएँ, सामाजिक –आर्थिक व्यवस्थाएं , राजनीतिक प्रणालियाँ सन्निहित हैं और इस विकास की प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि सबके बीच सौहार्द बना रहे, स्नेह का भाव हो , करुणा तत्त्व प्रभावी हो । हम यह कह सकते हैं कि विकास की प्रक्रिया में जो उत्तम नवनीत छन कर आता है वह संस्कृति के रूप में दिखाई देता है । उदाहरण के तौर पर प्राचीन भारत में अनेक राज्य एवं जनपद थे किन्तु इन सभी में एक ही मूल तत्त्व स्वीकार किया जाता था- ‘’सर्वं खल्विदं ब्रह्म ‘’ । सृष्टि के कण कण में ईश्वर को देखने की जो संस्कृति विकसित हुई वह जनपद या राज्य की सीमा से बंधी नहीं थी । लोगों में परस्पर भ्रातृभाव भारत की संस्कृति का मूल चिन्तन रहा है । 

           अपने व्याख्यान को आगे बढ़ाते हुए डॉ. निगम ने कहा कि राष्ट्रवाद की अवधारणा के सम्बन्ध में एक और बात ध्यान रखने की है कि भारत में ‘वाद’ जैसे तत्त्व का बोध न था, न कराया गया अपितु यह तो पश्चिम से आया है । लेकिन चूँकि राष्ट्रवाद एक लोकप्रिय शब्द बन गया जिसे हम भी गृहीत कर लेते हैं किन्तु भारत में राष्ट्र के सम्बन्ध में जो समझने की बात है वह है- ‘राष्ट्रतत्त्व’ । यह राष्ट्रतत्व सबको साथ लेकर चलने वाला है, यह विश्व मानवता के कल्याण की चिंता करने वाला है । यही कारण है कि भारत में राष्ट्र की जो संकल्पना है उसमें एकत्वदृष्टि है, वह टकराव को कभी जन्म नहीं देती है । भारत का राष्ट्र चिंतन भारत के सांस्कृतिक चिंतन के अनुरूप रहा है । भारत के सांस्कृतिक चिंतन में जो ‘’एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति’’ की भावना रही है जिसका यह प्रभाव रहा कि यहाँ आक्रमणप्रधान पाश्चात्य राष्ट्रचिंतन के विपरीत समन्वय एवं सौहार्द का प्रसार किया गया है । भारतीय राष्ट्रतत्त्व के चिंतन में सम्पूर्ण विश्व के विकास की संकल्पना है। इस समन्वयवादी चिन्तन की कालान्तर में हुई दुर्गति पर चिन्ता जाहिर करते हुए डॉ. निगम ने कहा कि दुर्भाग्य यह रहा है कि लम्बे ब्रिटिश शासन के कारण भारत के राष्ट्र एवं सांस्कृतिक चिंतन तथा शिक्षापद्धति में प्रयासपूर्वक विकृतियाঁ उत्पन्न की गई जिसका असर यह रहा कि हमारा मूल चिन्तन अगली पीढ़ियों के मन-मष्तिष्क से विलुप्त होता गया या उसका प्रभाव क्षीण होता गया । 19वीं शताब्दी में यह भी समय आया कि एक ही विचार को सारी दुनिया पर लादने की प्रवृत्ति विकसित हुई; जैसे (i) मार्क्सवादी विचार को लेकर रूस में हुई क्रांति और दुनिया भर में उसका विस्तार एवं उसकी अवधारणा की ही सर्वोच्चता का प्रचार (ii) धर्म एवं रिलिजन के विचार का सार्वभौमिक प्रचार । इन चिन्तनों का दुष्प्रभाव यह रहा कि इसके कारण दो बड़े महायुद्ध हुए; मानवता का शोषण हुआ; अमेरिकी महाद्वीप, ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप एवं न्यूजीलैंड महाद्वीप के मूलनिवासी समाप्त हो गए या कोने में धकेल दिए गए । कृत्रिम रूप से समान विचार सब पर लादने का प्रयास या विश्व को एकरूप बनाने का प्रयास नैसर्गिक नहीं है इसलिए उनको विफल होना था और वो विफल भी हुए । भारत का दुर्भाग्य रहा कि स्वतन्त्रता के पश्चात भारत में मूल भारतीय दर्शन एवं चिन्तन को आधार बनाकर जिस व्यवस्था को विकसित करना चाहिए था, शिक्षापद्धति में जो परिवर्तन करना चाहिए था , भारत के आर्थिक चिंतन एवं अर्थव्यवस्था को उस पर आधारित किया जाना चाहिए था जैसा की गाँधी की ग्राम स्वराज की अवधारणा या वैदिककालीन सामाजिक-आर्थिक चिंतन; किन्तु भारत में विदेशी चिन्तन को लादने का प्रयास हुआ जिसके परिणामस्वरूप यह बात स्थापित हुई की भारत न तो कभी एक राष्ट्र था और न ही एक संस्कृति वाला देश । चूँकि यूरोप में राष्ट्र की यह परिभाषा हुई कि एक भाषा बोलने वाले, एक जाति का समाज ही राष्ट्र है । इसी आधार पर भारत के विभिन्न राज्यों में भाषा एवं जातियों की विविधता को लेकर उसे अनेक राष्ट्र के रूप से दिखाने का प्रयास किया गया । यह अवश्य है कि सामान्य भारतीय के मन में पूरे देश को राष्ट्र मानने का भाव सदा बना रहा । सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधे रखने का सूत्र है- अपने से पहले अपने समाज एवं राष्ट्र के अन्य जनों की चिंता करना । इसको दो सूत्रों में समझा जा सकता है- पहला ‘’इदं न मम इदं राष्ट्राय स्वाहा’’ तथा दूसरा ‘’तेन त्यक्तेन भुञ्जीथ:’’ की भावना । हम यह दावे से कह सकते हैं कि भारत का राष्ट्रीय चिन्तन सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकात्म का चिंतन है ।  किन्तु इस चिन्तन पर पश्चिमी चिन्तन को थोपा गया ; लम्बे समय से जो समाजवादी चिंतन इस देश पर लादा गया उसने इस देश के व्यक्ति को दाता से याचक बनाने का प्रयास किया । सभी समस्याओं के समाधान के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए समाज के उत्तरदायित्व को संकुचित किया गया । इसी के साथ पश्चिम से ‘व्यक्तिवाद’ का चिन्तन आया जो कि बिखराव के लिए जिम्मेदार होता है । यदि हम तुलना करें तो देखेंगे कि कोरोना के इस संकटकाल में जहाँ भारत के सामान्य आयवर्ग के लोग भी भरपूर दान कर रहे हैं किन्तु अमेरिका में विपरीत स्थिति है वहाँ कम्युनिटी किचन को सहायता की आवश्कता है किन्तु उन्हें सहायता नहीं मिल पा रही है । यह जो अन्तर दोनों देशों के समाज में दिखाई दे रहा है उसका क्या कारण है? उसका कारण यही है कि भारत में समाज का जो राष्ट्रीय तत्त्व है वो मरा नहीं है । 

            वर्तमान परिस्थितियों में भारतीय राष्ट्रवाद पर विचार अभिव्यक्त करते हुए डॉ. निगम ने कहा कि इसी कोरोनाकाल में भारत में ऐसा भी एक बौद्धिक वर्ग है जो एक ही राष्ट्र में बहुसंस्कृतिकवाद का समर्थक है, गंगा-जमुनी तहजीब का पोषक है जिसके कारण अनेक समस्याएं देखने को मिली हैं ।  उन्होंने स्पष्टतया कहा कि एक ही समाज में दो संस्कृतियाঁ चलें यह संभव नहीं है । सकारात्मक दृष्टिकोण से भविष्य को देखने का विचार देते हुए उन्होंने यह भी कहा की एक आशा का दीप दिखाई दे रहा है । भारत की संस्कृति पर जो विकृतियां थोपने का प्रयास पूर्व में किया गया है उनका काल अब क्षीण हो रहा है । वक्तव्य के समापन में युवाशक्ति का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि भारत का युवा अपने मूल विचारों के निकट आ रहा है तथा यह युवा भारत के हित को पूरे विश्व के कल्याण के साथ जोड़ते हुए आगे चलने के लिए तत्पर है ।   

                                                            रिपोर्ट : डॉ अवधेश प्रताप सिंह , सहायक प्रोफेसर, संस्कृत विभाग , दिल्ली विश्वविद्यालय

Share. Facebook Twitter Pinterest LinkedIn Tumblr Email
admin

Related Posts

Revisiting Keshavanand: Relevance and Significance

September 19, 2020

नई शिक्षा नीति-2020 : भारतीय शिक्षा में नवोन्मेष का आवाहन

August 19, 2020

Economics of Kautilya’s Arthshastra

August 17, 2020

@वेबिनार रिपोर्ट – डॉ रविशेखर सिंह ‘समसामयिक वातावरण और आर्थिक परिप्रेक्ष्य’ विषय पर प्रो भगवती प्रकाश शर्मा का वक्तव्य

May 11, 2020
Add A Comment

Leave A Reply Cancel Reply

Categories
  • Blog
  • Events
  • Research
  • SRF
Recent Post
  • भारतीय भाषाओं की एकात्मता और पं. दीनदयाल उपाध्याय
  • घटता उत्पादन, बढ़ती बेरोजगारी और आत्मविश्वास से भरी सरकार
  • जान के साथ जहान भी संकट में!
  • योगी सरकार के विकास के दावे में कितना है दम!
  • अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए सरकार के दूरगामी और साहसिक कदम!
  • कितना गंभीर है यह उर्जा संकट!
  • महामारी और महामंदी के बीच आत्मनिर्भर भारत का राग !
  • अर्थव्यवस्था पर पेट्रोल डीजल की बढती कीमतों की मार!
  • जरुरी कृषि सुधारों के विरोध में किसान !
  • आत्मनिर्भर भारतः चुनौतियां एवं समाधान
  • Winners don’t do different things they do things differently
  • Bhumidana in Ancient India: A Religious and Spiritual Perspective
  • Assessment of land ownership rights on the basis of epigraphical evidences of bhumidāna during Gurjara Pratihāra period
  • ’आवां’ के निहितार्थ – जितेन्द्र श्रीवास्तव
  • Revisiting Keshavanand: Relevance and Significance
  • नई शिक्षा नीति-2020 : भारतीय शिक्षा में नवोन्मेष का आवाहन
  • An Insight into the New Education Policy 2020 .
  • Economics of Kautilya’s Arthshastra
  • International Webinar on National Education Policy 2020: Future Road map for Education in India
  • Rendezvous with Renowned Speakers in Varied Areas of Law .
Office Address

Address : Follow us and stay updated with all the news and researches
Email : info@srfindia.org
Phone : (442) 7621 3445

Quick Links
  • Home
  • About us
  • Research
  • Gallary
  • Centers
  • Blogs
  • Events
  • Contact us


Sangyartham Research Foundation is a non-profit institution that focuses on research in humanities , law and social sciences . It came into existence in the year 2020 with the following objectives.:

Facebook Twitter YouTube
Facebook Twitter YouTube
  • Home
  • About us
  • Research
  • Gallary
  • Centers
  • Blogs
  • Events
  • Contact us
© 2022 Designed by Providing edge.

Type above and press Enter to search. Press Esc to cancel.