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Home » Blog » नई शिक्षा नीति-2020 : भारतीय शिक्षा में नवोन्मेष का आवाहन
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नई शिक्षा नीति-2020 : भारतीय शिक्षा में नवोन्मेष का आवाहन

adminBy adminAugust 19, 2020Updated:April 24, 2022No Comments19 Mins Read
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आज की जमीनी हकीकत को देखते हुए नई शिक्षा नीति एक बहुत बड़ी छलांग है, जो किसी भी तरह सम्पूर्ण क्रांति से कम नहीं है। यह हर तरह से एक सुनम्य व्यवस्था की पक्षधर है। कुल मिला कर शिक्षा नीति-2020 शिक्षा जगत के लिए एक मधुर स्वप्न की तरह है। इसके संरचनात्मक और प्रक्रियात्मक सुधार में केंद्रीकरण का भय दिखता है, परंतु आज इतनी अधिक विविधता और स्थानीयता है कि उसकी आड़ में बहुत सा अनर्गल काम होता है। वस्तुत: शैक्षिक जगत के लिए स्वायत्तता, पारदर्शिता और दायित्व-बोध का संतुलन आवश्यक है। आशा है, इस आधारभूत प्रतिज्ञा को नहीं भुलाया जाएगा, लेकिन यह सब तभी हो सकेगा जब देशहित में जीडीपी का प्रस्तावित 6 प्रतिशत शिक्षा को उपलब्ध कराया जाए। अच्छी शिक्षा ही ज्ञान और कौशल से समृद्ध करती है, तभी वह आदमी को योग्य और सुपात्र बनाती है और कष्टों से मुक्त करती है, इसलिए शिक्षा की गुणवत्ता के लिए नई शिक्षा नीति को लागू करना देशहित में होगा।

प्रो. गिरीश्वर मिश्र

लेखक व सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक

भारत विकास और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो रहा एक जनसंख्या-बहुल देश है। इसकी जनसंख्या में युवा वर्ग का अनुपात अधिक है और आने वाले समय में यह और भी बढ़ेगा जिसके लाभ मिल सकते हैं, बशर्ते शिक्षा के कार्यक्रम में जरूरी सुधार किया जाए। यह आवश्यक होगा कि कुशलता के साथ सर्जनात्मक योग्यता को भी यथोचित स्थान मिले। शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का माध्यम होती है और उसी से समाज की चेतना और मानसिकता का निर्माण होता है। कहना न होगा कि भारत के पास ज्ञान और शिक्षा की एक समृद्ध और व्यापक परम्परा रही है, किन्तु अंग्रेजी उपनिवेश के दौर में एक भिन्न दृष्टिकोण को लागू करने के लिए और साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के अनुरूप यहां की अपनी ज्ञान-परम्परा और शिक्षा-पद्धति को प्रश्नांकित करते हुए लार्ड मैकाले द्वारा निर्दिष्ट व्यवस्था के अनुरूप शिक्षा थोपी गई। इसने देश को देश से और उसकी ज्ञान-परम्परा से न केवल दूर किया, बल्कि उसके प्रति घृणा भी पैदा की। अंग्रजों ने अपने हित में अपने शासन की सुविधा  के लिए कारकून पैदा करने वाली शिक्षा प्रणाली खड़ी की। इसमें ज्ञान के लिए पश्चिम पर सतत् निर्भरता एक आन्तरिक जरूरत बन गई, जिससे चाह कर भी हम मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण देशीकरण (इंडीजेनाइजेशन) की पहल का है, जो मूल को यथावत रखते हुए कुछ आंशिक बदलाव लाने की कोशिश करता है।

स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी व्यवस्था ही कमोबेश आधार बनी रही और महात्मा गांधी जैसे लोगों के प्रयास के बावजूद औपनिवेशिक मानसिकता से छूट न मिल सकी। इसके फलस्वरूप शिक्षा का विस्तार तो हुआ, लेकिन अनेक सीमाओं के कारण शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता भी होता रहा, इसलिए शिक्षा में उत्कृष्टता के लिए विभिन्न आयोगों और शिक्षाविदों द्वारा समय-समय पर सुझाव दिए जाते रहे हैं। इन पर अमल करने के लिए कुछ प्रयास भी हुए, पर पर्याप्त मात्रा में ध्यान देने के लिए संसाधन और इच्छाशक्ति के अभाव में गम्भीर प्रयास नहीं हो सके। वर्ष 1986 में बनी शिक्षा नीति में शामिल अनेक प्रस्ताव भी कार्यरूप में नहीं आ सके। इस बीच समस्याएं बढ़ती ही गईं।

बहुत दिनों से थी नई शिक्षा नीति की दरकार

यदि आजादी के समय से तुलना की जाए तो आज भारत में साक्षरता, शिक्षा संस्थाओं की संख्या और स्कूल में नामांकन भी बढ़ा है और हम गर्व भी महसूस कर सकते हैं, परंतु जब विद्यार्थियों की उपलब्धि, गुणवत्ता और ज्ञान में वृद्धि की बात करते हैं तो स्थिति बड़ी चिंताजनक दिखती है। सरकारी और गैर सरकारी मूल्यांकन स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि सरकारी स्कूलों (जिनमें 70 प्रतिशत बच्चे पढ़ने जाते हैं) के बच्चों की गणित, भाषा और अन्य विषयों में उपलब्धि उनकी कक्षा स्तर की तुलना में बहुत नीचे है। माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तरों पर भी अध्ययन-अध्यापन को लेकर व्यापक असंतोष व्यक्त किया जाता रहा है। विद्यार्थियों में जरूरी कुशलता का अभाव और अकादमिक कमजोरियों के तमाम उदाहरण आए दिन देखने को मिलते हैं। शोध की वैधता को सुरक्षित करने के लिए साहित्यिक चोरी के लिए कानून बनाना पड़ा। उच्च शिक्षा पा कर डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या भी बढ़ती गई है। शिक्षा जगत की इन सब विडम्बनाओं के चलते शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए आवाज उठती रही है, परंतु अन्यान्य कारणों से शिक्षा का प्रश्न टलता गया था और 1986 में शिक्षा नीति आने के बाद मात्रात्मक सुधार के अतिरिक्त कोई बदलाव नहीं आ सका। ऐसे में वर्तमान सरकार ने जब इस कार्य को हाथ में लिया तो सबकी आशाएं जी उठी थीं कि बासी हो रही व्यवस्था में परिवर्तन आएगा और 21वीं सदी के लिए, जबकि भारत युवतर हो रहा है, एक ऐसी शिक्षा नीति बनेगी जो समाज को दिशा दे सके। सरकार ने बड़ी संजीदगी के साथ समाज में व्यापक सलाह-मशविरे के बाद नई शिक्षा नीति जारी की है।

गहन और व्यापक विचार-विमर्श के बाद प्रस्तुत शिक्षा नीति-2020  इन समस्याओं के साथ ही भविष्य की जरूरतों के मद्देनजर कई सुधारों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है। इनमें शिक्षा प्रणाली की संरचना, प्रक्रिया, लक्ष्य, अध्यापक-प्रशिक्षण आदि सभी पहलुओं पर सार्थक विचार किया गया है। यह एक ऐसे दस्तावेज के रूप में उपस्थित हुई है, जो भविष्य के भारतीय समाज को तैयार करने के लिए खाका प्रस्तुत करती है। इस दस्तावेज में उन समस्याओं को पहचाना गया है, जिनसे शिक्षा का स्वरूप और उसकी उपलब्धियां विश्रृंखलित हुई हैं और बड़े साहस के साथ स्वरूप और प्रक्रिया में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं।

मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा स्वागत योग्य निर्णय

इस नीति में आरंभिक स्तर पर मातृभाषा को महत्व दिया गया है। यह सबको विदित है कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण और अध्यापन  बच्चों के मानसिक व स्वाभाविक रूप से विकास के लिए लाभकारी होता है। ध्यान रहे कि अंग्रेजी विषय के रूप में पढ़ना ठीक है, पर अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना निश्चित रूप से गैर अंग्रेजी क्षेत्र के बच्चों के लिए घातक है। अंग्रेजी को विश्वभाषा मान लेने से अनुकरण की भावना और पराधीनता की प्रवृत्ति को ही उकसावा मिलता है। पूर्वाग्रह और भेदभाव के कारण हम लोगों पर अंग्रेजी का भूत हावी होता रहा। अंग्रेजी जानने वाले उच्च वर्ग के होते हैं और उनका अखंड वर्चस्व हर कहीं देखा जा सकता है। अंग्रेजी की कोई अतिरिक्त आंतरिक दैवी शक्ति तो नहीं होती है, परन्तु सम्मान की भाषा होने के कारण उसका उपयोग भारतीय विचार, व्यवहार और संस्कृति के विरुद्ध जरूर चला जाता है। भाषा की प्रतिष्ठा उसकी स्मृति को भी प्रभावित करती है।

आखिर भाषा का जन्म और पालन-पोषण समाज की परिधि में ही होता है, अतएव शुरू में ही अंग्रेजी के भाषायी संस्कार यदि अंग्रेजी संस्कृति को भी स्थापित करते चलते हैं तो यह स्वाभाविक है। भाषा और संस्कृति के बीच सहज आवाजाही होती है और अपरिपक्व मति के छोटे बच्चे के लिए संस्कृति और ज्ञान की भाषाओं के बीच महीन भेद करना सुकर नहीं होता है। ऊपर से ज्ञान की भाषा की श्रेष्ठता स्वत: स्थापित हो जाती है, अत: हर कीमत पर मातृभाषा की जगह अंग्रेजी की ही जय होती है। वैसे सभी देशों में मातृभाषा को ही आरंभिक शिक्षा का माध्यम बनाया जाता है और इसका महत्व वैज्ञानिक अध्ययनों से भी प्रकट होता है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत मातृभाषा को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया जाना एक स्वागत योग्य निर्णय है।

नई नीति में विद्यार्थी के बहुमुखी विकास पर बल

भविष्य की जरूरतों का आकलन करते हुए और अपनी जमीन पर टिकते हुए वैश्विक बदलाव के प्रति संवेदना के साथ यह नई शिक्षा नीति रचनात्मकता और रुचि के अनुसार विद्यार्थी के बहुमुखी विकास के अवसर उपलब्ध कराने का वादा करती है। विषयवस्तु तो माध्यम है, पर जरूरी है सीखने की ललक पैदा करना और इसके लिए विकल्प देना। खासतौर पर आज के माहौल में, जब जीवन की परिधि और जटिलता बढ़ती जा रही है, अवसरों की विविधता बढ़ रही है, यह नीति विद्यार्थियों को अध्ययन-विषयों के चयन में व्यापक अवसरों का प्रावधान करते हुए संभावनाओं के द्वार खोलती है। आज सभी महसूस कर रहे हैं कि अंतरानुशासनिक (इंटर डिसिप्लिनरी) अध्ययन के बिना समुचित अध्ययन संभव नही है। ऐसे में कला, विज्ञान और व्यावसायिक विषयों की पारस्परिकता का सम्मान करना आवश्यक है। शिक्षा नीति में इसके लिए अवसर बनाया गया है, जिसका स्वागत होना चाहिए। छात्रों को शैक्षिक कॅरियर में प्रवेश लेने और बाहर जाने के लिए अनेक विकल्पों का प्रावधान तथा उच्च शिक्षा में केवल परिश्रम करने के लिए अतिरिक्त तत्परता वाले छात्रों को अवसर देने का प्रावधान निश्चित रूप से अध्ययन में गंभीरता लाएंगे। कला और विज्ञान के बीच भेद को हटा कर नई विषय संयुक्ति (कॉम्बीनेशन) आकर्षक प्रस्ताव है।

भारतीय शिक्षा प्रणाली प्रवेश और परीक्षा के कृत्य की चुनौतियों में उलझ कर सीखने और सिखाने के सवालों से अक्सर कतराती रही है। आम तौर पर प्रमाणपत्र और डिग्री बांटने में ही उसकी इतिश्री हुआ करती है। कौशल अर्जित करने की जगह परीक्षा में ज्यादा से ज्यादा अंक लाना ही उसका लक्ष्य बन गया और इसके लिए गलाकाट स्पर्धा के परिणाम घातक होते चले गए। ऐसे बंधे-बंधाए ढर्रे से अलग हटते हुए वर्तमान समय की जटिलताओं के मद्देनजर नई शिक्षा नीति विद्यार्थियों की रुचियों में विविधता को जगह देते हुए विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए अवसरों को रेखांकित करती है। बचपन से युवा होने तक शारीरिक और मानसिक विकास की जरूरतों को देखते हुए पूर्व प्राथमिक (नर्सरी) से स्नातक स्तर तक विस्तृत शिक्षा के क्रम को चार चरणों में व्यवस्थित करते हुए शिक्षा के अधिकार की परिधि को बढ़ाना एक सराहनीय कदम है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया है, जो स्वागत योग्य है।

आज हर कोई आंख मूंद कर हाई स्कूल, इंटर, बी.ए. और एम.ए. की श्रृंखला में आगे बढ़ता रहता है। एक बार घुसने पर कहीं बीच में निकलने का न अवसर होता है और न उद्देश्य सिद्ध होता है। इच्छा या अनिच्छा से हर कोई इस भेंड़चाल में शामिल रहता है। आज उच्च शिक्षा में लगन के साथ पढ़ने वालों और समय-यापन करने वालों के बीच व्यवस्था के स्तर पर कोई फर्क न होने से नाहक भीड़ बढ़ती है और व्यवस्था पर दबाव से गुणवत्ता पर असर पड़ता है। ऐसे में चार वर्ष के बी.ए. के पाठ्यक्रम को एम.ए. के लिए और शेष छात्र-छात्राओं को डिप्लोमा और डिग्री देकर दो और तीन वर्ष की पढ़ाई के साथ जोड़ना अच्छी पहल है। उच्च शिक्षा के साथ न्याय के लिए यह व्यवस्था एक प्रभावी कदम साबित होगी।

भारत की बहु-भाषाभाषी समृद्ध परम्परा को स्थान

इस नीति में भारत की बहु-भाषाभाषी समृद्ध परम्परा को भी स्थान दिया गया है और भाषा के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया गया है। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बना कर और आगे त्रिभाषा अध्ययन की व्यवस्था भारतीय समाज की प्रकृति की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त है। भाषा न केवल किसी भी क्षेत्र में ज्ञान के लिए अनिवार्य आधार का काम करती है, बल्कि अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक जीवन के लिए भी आवश्यक है। यह खेद का विषय है कि भाषा के अध्ययन-अध्यापन के प्रति बड़ा लचर रवैया अपनाया जाता रहा है। इसके फलस्वरूप भाषिक योग्यता में लगातार गिरावट होती रही है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में इस वर्ष हाई स्कूल की परीक्षा में आठ लाख विद्यार्थी फेल हो गए हैं। नई शिक्षा नीति में भाषा और भारतीय ज्ञान परम्परा के साथ परिचय को महत्व देकर सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करने और देश की एकता के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया है।

भारतीय ज्ञान-परम्परा और संस्कृत, प्राकृत और फारसी का अध्ययन आज सक्रिय संरक्षण की अपेक्षा करता है। संस्कृति की जड़ों को जीवन्त रख कर ही समाज में चैतन्य लाया जा सकता है। इस दृष्टि से शरीर, मन और आत्मा इन सबका पोषण होना चाहिए। नई नीति में ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में से अपनी रुचि के विषय पढ़ने का अवसर, माध्यमिक शिक्षा के अंतर्गत कौशल की अनिवार्य शिक्षा और आगे उच्च शिक्षा में प्रवेश और निर्गम की (एक/दो/तीन/चार वर्षों के विकल्प की) सहूलियत नि:संदेह आज के किशोर और युवा के लिए अधिक अवसर प्रदान करेगी। नई नीति में परीक्षा के स्वरूप, अवसर और संख्या को लेकर नई सोच है, जो विद्यार्थियों और अभिभावकों के लिए सुकून देने वाली है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए योग की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

अध्यापक प्रशिक्षण संस्थानों के लिए होगा लाभकारी

नई नीति में शिक्षक तैयार करने के लिए प्रशिक्षण को लेकर भी नई सोच दिखती है। नीति में अध्यापक प्रशिक्षण को व्यवस्थित करने का प्रस्ताव शिक्षण संस्थानों के लिए लाभकारी होगा। परीक्षा की वर्तमान प्रणाली की कठिनाइयों को ध्यान में रख कर कई सुधार प्रस्तावित किए गए हैं, जिनसे उसकी प्रामाणिकता को बल मिलेगा और विद्यार्थी के विकास में भी मदद मिलेगी। आज के बदलते परिवेश के अनुरूप विद्यार्थियों को अधिकाधिक अवसर देने की प्रभावी व्यवस्था निश्चित तौर पर भिन्न-भिन्न रुचियों वाले विद्यार्थियों को पसंद आएगी। शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा की संस्थाओं के स्वरूप और गठन को लेकर कई महत्वाकांक्षी प्रस्ताव सम्मिलित हैं, जिनके लिए संसाधन जुटा कर उन्‍हें अंजाम दिया जा सकेगा।

नई शिक्षा नीति इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि निजी और सरकारी शिक्षा संस्थाओं के बीच के अंतर को समाप्त करने का प्रस्ताव किया गया है। साथ ही शैक्षणिक सुविधाओं के अधिकाधिक उपयोग के लिए संस्थाओं के संरचनात्मक और नियामक व्यवस्था में भी सकारात्मक परिवर्तन लाने की व्यवस्था की गई है। इन सबके लिए पर्याप्त साधन जुटाने के लिए सरकार को बजट में शिक्षा को वरीयता देनी होगी और जैसा कहा गया है, जीडीपी का 6 प्रतिशत अवश्य उपलब्ध होना चाहिए। समाज के मानस के निर्माण और कुशल मानव संसाधन पाने के लिए यह निवेश किया जाना हितकर होगा। आज शिक्षा के परिसर विकलांग हो रहे हैं और कई तरह से विषाक्त भी होते चले गए हैं। इस स्थिति से उबरना आवश्यक है।

स्वागतयोग्य है मूल्यांकन में सुधार का प्रस्ताव

शिक्षा की उपलब्धि का मूल्यांकन कैसे किया जाए, यानी परीक्षा का प्रश्न भारतीय शिक्षा का एक दुखद पहलू है। उसकी प्रामाणिकता और परेशानियों को ध्यान में रख कर कई सुधार प्रस्तावित किए गए हैं। यह प्रस्ताव कि प्राप्तांक पत्र विद्यार्थी को अंकों में समेटने के बदले उसके कौशलों और उपलब्धियों का विवरण दे और परीक्षा-परिणाम से असंतुष्ट होने पर सुधारने का अवसर मिले, स्वागतयोग्य है। इसी तरह औपचारिक शिक्षा को किताबी और रटंत पद्धति से मुक्त करते हुए जीवन और कौशल से जोड़ने की भी व्यवस्था की गई है, जो विद्यार्थी के व्यक्तित्व के विकास और सामाजिक दायित्व से जुड़ने का अधिकाधिक अवसर प्रदान करेगी। इसी तरह शिक्षा पाने के अन्य साधनों और केंद्रों के साथ जुड़ने को भी समुचित मानते हुए ज्ञान के विस्तार के लिए लचीली व्यवस्था की गई है।

शिक्षा की इस महत्वाकांक्षी पहल का देश को बहुत समय से इंतजार था। पिछले सात दशकों में एक तरह के उदासीन या एकांगी दृष्टिकोण के चलते ठहराव आता गया था और मौलिकता, सृजनशीलता और कुशलता की जगह नकल, पुनरुत्पादन और कामचलाऊ अनुष्ठान (रिचुअल) से काम चलाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता रहा। प्राय: जो आवश्यक प्रश्न, जरूरी आंकड़े, समाधान की युक्तियां और सैद्धांतिक दृष्टि थी, उसका बौद्धिक नियंत्रण यूरो-अमेरिकी ज्ञान की परम्परा में टिका रहा। उन्हीं का विस्तार, परीक्षण और पुष्टि का प्रयास चलता रहा और ज्ञान-निर्माण का भ्रम निष्ठा और श्रद्धा के साथ पाला जाता रहा। इन सब प्रयासों का भार ढोने और पश्चिमी दृष्टि के वर्चस्व में ही भविष्य दिखता रहा। इस पूरी प्रक्रिया में दुहराव ही अधिक हुआ, पर ज्ञान-विज्ञान की कवायद (ड्रिल) से मन में भरोसा आता रहा।

स्वायत्तता, पारदर्शिता, दायित्व बोध का संतुलन जरूरी

शोध के नाम पर न केवल प्रचुर कूड़ा-कचरा एकत्र हुआ है, बल्कि शिक्षा की रक्त वाहिनियों में प्रवेश कर चुका है। उसके घुन से उपजे विष और प्रदूषण से आज निजात पाना मुश्किल हो रहा है। इन सबका समवेत परिणाम यह हुआ कि पूरा शैक्षिक परिवेश संकुचित प्रवृत्तियों का शिकार होता गया और गैर शैक्षणिक समर्थन जुटा कर शिक्षा संस्थान की जगह सीमित हितों की रक्षा का उद्योग खड़ा होता गया। संस्कृति, समाज, संदर्भ और मूल्य जैसे प्रश्न दकियानूसी करार दिए जाते रहे। यहां के मेधावी विद्यार्थी क्षुब्ध होकर विदेशी संस्थानों की ओर रुख करने लगे और आज लाखों की संख्या में ये विद्यार्थी यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्ययन कर रहे हैं और अच्छा कार्य कर रहे हैं। नई शिक्षा नीति का बीज शब्द ‘गुणवत्ता’ है और सच कहें तो उसकी स्थापना के अलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। हम तभी प्रामाणिक और उपयोगी ज्ञानार्जन कर सकेंगे, जब हमारे अध्ययन में गुणवत्ता होगी।

‘जीवंत ज्ञान समाज’ के निर्माण का संकल्प

भारत सरकार की नई शिक्षा नीति 21वीं सदी के लिए ‘भारतकेंद्रित’ और ‘जीवंत ज्ञान समाज’ के निर्माण के संकल्प के साथ प्रस्तुत हुई है। साथ ही यह एक समावेशी दृष्टि अपनाते हुए भारत के भविष्य की रचना के लिए प्रतिश्रुत है। भारत को केंद्र में रख कर शिक्षा पर विचार करना उन सभी लोगों के लिए सुखद और संतोषदायी अनुभूति है जो उसके विस्मरण, उपेक्षा या अवांछित प्रस्तुति से खिन्न रहा करते थे। ऐसे ही ‘ज्ञान (केंद्रित!) समाज’ का विचार भी भारतीयों के लिए संतोषदायी प्रतीत होता है, जो ज्ञान को पवित्र, क्लेश दूर करने वाला, मुक्ति देनेवाला मानते हैं। यह जरूर आश्चर्यजनक है कि स्वामी विवेकानंद के आधे-अधूरे वक्तव्य के अलावा कोई सार्थक भारतीय विचार उल्लेख करने योग्य नहीं मिला। ज्ञानियों की और समृद्ध ज्ञान की शंकराचार्य, तिरुवल्लुवर से लेकर कबीर तक शास्त्रीय और लोक-प्रचलित अनेक परम्पराएं भी पूरे भारत में मौजूद हैं।

दो महापुरुषों का स्मरण करना जरूरी

इस प्रसंग में शिक्षा की मानवीय परिकल्पना को साकार करने वाले दो महापुरुषों का स्मरण किए बिना मन नहीं मानता है। एक तो पहले गैर एशियाई नोबेल पाने वाले गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर, जिन्होंने ऐसे भारत की कल्पना की थी ‘जहां चित्त भय-शून्य हो, जहां सिर उन्नत हो, जहां ज्ञान मुक्त  हो’। गुरुदेव ने शिक्षा पर सोचा भी और उसका यथार्थ रूप भी प्रस्तुत किया। उनके हिसाब से शिक्षा मुक्त करती है और ज्ञान के आंतरिक प्रकाश से परिपूर्ण कर देती है। रचना और सृजन से भरी शिक्षा वासनाओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त कर विश्व को स्वीकार करने का साहस देती है और अनुभव करने के लिए सहानुभूति देती है। उच्चतम शिक्षा सूचना मात्र नहीं देती है, वह समस्त अस्तित्व के साथ सामंजस्य बनाती है। गुरुदेव के मुख्य विचार थे कि शिक्षा को प्रकृति के अनुकूल, मानवीय, अंतरराष्ट्रीय और आदर्शोन्मुख होना चाहिए। श्रीनिकेतन और शांतिनिकेतन को गुरुदेव ने इन्हीं सिद्धांतों के अनुरूप रचा और संचालित भी किया।

दूसरे महापुरुष हैं महात्मा गांधी, जो यह कहते हैं कि ‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बालक के शरीर, मन, तथा आत्मा की उत्तम क्षमताओं को उद्घाटित किया जाए और बाहर प्रकाश में लाया जाए।’ उनके विचार में ‘शिक्षा का मूल उद्देश्य मनुष्य को सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाना है। जो शिक्षा मानवीय सद्गुणों के विकास में योग नहीं देती और व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का मार्ग नहीं प्रशस्त करती, वह शिक्षा अनुपयोगी है।’ वे मानते हैं, ‘बालक की आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक क्षमताओं के पूर्ण विकास का दायित्व शिक्षा पर है।’ जब तक शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा का विकास एक साथ नहीं हो जाता, तब तक केवल बौद्धिक विकास एकांगी ही रहेगा। जैसा कि सबको ज्ञात है, गांधीजी ने नई तालीम शुरू की और वर्धा में उसका उपक्रम शुरू किया।

दोनों ही महापुरुष शिक्षा को भारत, ज्ञान और मनुष्यता के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे। शिक्षा नीति ने प्रकट रूप से भारत के बाहर के चिंतन को ही भारत को समझने का प्रमुख आधार बनाया है। गांधी, टैगोर जैसे चिंतक अप्रासंगिक हैं। 21वीं सदी की वैश्विक हो चुकी दुनिया में खड़े होकर भारत केंद्रित विचार ही इस नीति का खांचा और ढांचा है। डेलोर्स समिति की 1996 की (बीसवीं सदी की प्राचीन!)  रपट, ‘इक्कीसवीं सदी’ और अंतरराष्ट्रीय रपटों को आधार बना कर पिछली शिक्षा नीतियों को आगे बढ़ाते हुए मसौदे को तैयार किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि 21वीं सदी की अवधारणा सिर्फ वश्वीकरण, प्रौद्योगिकीकरण विशेषत: डिजिटलीकरण के अर्थ में ली गई है, जो भारत को एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप रूपांतरित करने के लिए जरूरी है। ज्ञान-समाज का आशय भी यहीं से लिया गया है। ज्ञान केंद्रित समाज की ओर जाना सूचना और ज्ञान आधृत सामाजिक-आर्थिक संगठन, जो डिजिटल प्रौद्योगिकी पर टिकी होती हैं, को न्योता देता है। सूचना और ज्ञान के उत्पादन, प्रसार और तेजी से हो रही तकनीकी प्रगति से उपजे नवाचार को आत्मसात करने के लिए जरूरी है आर्थिक और सामाजिक विकास की संतुलित सार्वजनिक नीति का विकास, उसे लागू करना और उसे निरंतर तरो-ताजा करते रहना। आशा की जाती है कि डिजिटल तकनीक के उपयोग द्वारा पारदर्शिता आएगी, व्यापार की क्षमता बढ़ेगी, नागरिक सुविधाओं को बढ़ाना संभव होगा।

शिक्षा के लक्ष्य की पहचान करना आवश्यक

ज्ञान और सूचना आज आम आदमी की जिंदगी पर तेज असर डाल रहे हैं। हम देख रहे हैं कि सूचना और संचार की प्रौद्योगिकी को साझा करना अर्थव्यवस्था और और समाज को बदलने की शक्ति रखता है। समावेशी ज्ञान समाजों के निर्माण के लिए सूचना तक सबकी पहुंच और उसे साझा करना प्रमुख आधार हैं। यह माना जा रहा है कि सूचना तक सार्वभौम पहुंच होने से शांति होगी और टिकाऊ आर्थिक विकास होगा, लेकिन वास्तविकता कुछ और है। आज अमेरिका साइबर युद्ध छेड़ सकता है। मानवीय संवेदना और मूल्यों का विकल्प सूचना और उस पर आधृत ज्ञान नहीं हो सकता, अत: भारत की वास्तविकताओं पर ध्यान देना होगा और शिक्षा के लक्ष्य पहचानने होंगे। शिक्षा मशीनी तंत्र नहीं हो सकती, इस पक्ष पर विचार करना होगा। यह संतोष का विषय है कि नई नीति में भाषा और संस्कृति के महत्व को भी केंद्रीय स्थान दिया गया है। शिक्षा की व्यवस्था से जुड़े कई व्यावहारिक प्रश्नों पर पहली बार विचार करते हुए उसके बहुस्तरीय पुनर्गठन और तदनुसार आवश्यक संसाधनों का प्रस्ताव भी इसमें प्रस्तुत किया गया है।

आज की जमीनी हकीकत को देखते हुए नई शिक्षा नीति एक बहुत बड़ी छलांग है, जो किसी भी तरह सम्पूर्ण क्रांति से कम नहीं है। यह हर तरह से एक सुनम्य व्यवस्था की पक्षधर है। कुल मिला कर, शिक्षा नीति-2020 शिक्षा जगत के लिए एक मधुर स्वप्न की तरह है। इसके संरचनात्मक और प्रक्रियात्मक सुधार में केंद्रीकरण का भय दिखता है, परंतु आज इतनी अधिक विविधता और स्थानीयता है कि उसकी आड़ में बहुत सा अनर्गल काम होता है। वस्तुत: शैक्षिक जगत के लिए स्वायत्तता, पारदर्शिता और दायित्व बोध का संतुलन आवश्यक है। आशा है इस आधारभूत प्रतिज्ञा को नहीं भुलाया जाएगा, लेकिन यह सब तभी हो सकेगा जब देशहित में जीडीपी का प्रस्तावित 6 प्रतिशत शिक्षा को उपलब्ध कराया जाए। अच्छी शिक्षा ही ज्ञान और कौशल से समृद्ध करती है, तभी वह आदमी को योग्य और सुपात्र बनाती है और कष्टों से मुक्त करती है, इसलिए शिक्षा की गुणवत्ता के लिए नई शिक्षा नीति को लागू करना देशहित में होगा।

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