जनवरी के अंत में हुए वर्ल्ड इकोनामिक फोरम में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े गर्व से भारत के कोरोना वायरस पर जीत की घोषणा की थी। जनता तो इससे भी कुछ महीने पहले ही अपने कार्य व्यवहार से इस विजय की घोषणा करती दिखी। लोग देश के प्रमुख पर्यटन स्थलों पर बिना किसी सतर्कता के पार्टी मनाते, घूमते नजर आए। दीपावली, क्रिसमस, होली में जमकर बाजारों में खरीदारी हुई। लोग बिंदास थे। वैसे अक्टूबर-नवम्बर से जब कोरोना के संक्रमण में तेजी से कमी आने लगी तभी शायद सरकारों ने यह समझ लिया था कि उसने कोरोना के विरुद्ध लड़ाई जीत ली है। राज्य सरकारों ने कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कराने में नितांत ढीलाई बरती और लोग बिंदास होकर बाजारों से लेकर रैलियों तक में घूमते रहे। सरकारों ने अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या और आक्सीजन को बढ़ाने के लिए भी कोई ठोस कार्य नहीं किया।
लेकिन अचानक हमने रिकॉर्ड बनाना शुरू कर दिया और कोविड-19 की संख्या एक दिन 4 लाख की संख्या पार कर गई। यह स्थिति तब है जबकि राज्यों में कोविड की जाँच पर्याप्त मात्रा में नहीं हो रही है। जितने टेस्ट हो रहे हैं उसके 30% लोग संक्रमित पाए जा रहे हैं इस हिसाब से हम कोरोना के इस दूसरी लहर की गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैं और इस महामारी की विभीषिका का भी अनुमान लगा सकते हैं।
भयावह होती स्थिति, असहाय सरकारें!
अमेरिकी एजेंसी गोल्डमैन सैक्स ने भी भारत के आर्थिक समृद्धि दर को 2021 भाई के लिए 11.7% से घटाकर 11.1% कर दिया है। कुछ महीने पहले एक मुख्यमंत्री ने यह घोषणा की थी कि वे अब कोरोना से निपटने में केंद्र सरकार से कोई मदद नहीं लेंगे। लेकिन अब भीख मांगते और यह कहते नहीं थक रहे हैं कि केंद्र सरकार कोई मदद नहीं कर रही है, कोई तो मदद दे दे।
यह सरकारों की और पूरे तंत्र की विफलता नहीं तो और क्या है कि हमने इतिहास से, अपने पुराने अनुभवों से और दूसरे देशों के अनुभवों से कुछ नहीं सीखा। निश्चित ही इस प्रकार की स्थिति से निपटने के लिए पहले से कोई ठोस योजना बनाई जानी चाहिए थी।
दिल्ली में ऑक्सीजन की कमी के मुद्दे पर हाई कोर्ट में चल रही सुनवाई पर 4 मई को हाई कोर्ट की टिप्पणी बेहद तल्ख थी। कोर्ट ने कहा कि इस तरह से लोगों का मरना बहुत ही दुखद है और केंद्र शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर्फ छुपाए हुए है। संक्रमित हो रहे लोगों की संख्या में लॉकडाउन के कारण कुछ कमी अवश्य आई है लेकिन मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रतिदिन 3500 से 4000 लोग मर रहे हैं। 4 मई को देश में कुल संक्रमितों का आंकड़ा दो करोड़ 60 लाख से अधिक हो गया। मात्र 15 दिनों में संक्रमण के 50 लाख से अधिक मामले आए हैं। अब तक 225000 से ज्यादा लोग करोना से जान गवा चुके हैं। सरकार के द्वारा मरने वालों के दिए गए आंकड़ों और विभिन्न शहरों में जल रही लाशो और कब्रगाहों के आंकड़ों को देखें तो यह संख्या कहीं बहुत अधिक है।
कोरोना की यह दूसरी लहर सरकार और जनता दोनों के लिए अप्रत्याशित है। कोरोना की पहली लहर में तो हम संभल गए थे लेकिन दूसरी लहर में संभलने का मौका नहीं मिला, क्योंकि सरकार और जनता दोनों ही निश्चितता के भाव में आ गए थे जैसे कि कोरोनावायरस खत्म हो गया हो। आज स्थिति भयावह है। ना चाहते हुए भी राज्य सरकारों को लाकडाउन जैसे कड़े कदम उठाने पड़ रहे हैं, कहीं पूर्ण लॉक डाउन है तो कहीं आंशिक। लेकिन जिस प्रकार से स्थितियां बिगड़ रही हैं उसमें आगे लॉक डाउन की अवधि बढ़ भी सकती है। राज्य धीरे धीरे लॉक डाउन की अवधि लगातार बढ़ाते ही जा रहे हैं। मुंबई और सूरत जैसे शहरों से लोगों का पलायन भी शुरू हो गया है। गनीमत है ट्रेन और बस में चल रही है, लोगों को साधन मिल रहे हैं, इसलिए स्थिति पहले लाकडाउन की तरह नहीं है।
इतने बड़े देश में जब इस प्रकार से अचानक मरीजों की आमद होगी और लोगों के बीच पैनिक होगा तो उनके लिए उचित व्यवस्था करना निश्चित ही बहुत कठिन होगा। लेकिन बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक यह है कि आम जनता किससे बात करे , किस से सलाह ले, कहां जाए, कहां अपने मरीजों को भर्ती करे, कहां इलाज करे, इस संदर्भ में उन्हें दिशा निर्देश देने वाला, सही सलाह देने वाला, मदद देने वाला कोई नहीं है और कुछ लोग उसकी इस मजबूरी का फायदा उठा रहै हैं, लूट रहे हैं। सरकार, तंत्र, जनप्रतिनिधि सब जैसे नदारद हैं! एक अदद ऑक्सीजन के अभाव में मौत! जो जाने बड़ी आराम से बचाई जा सकती थीं, जो सिर्फ कुछ घंटे ऑक्सीजन पा जाने से बच सकती थीं, उन्हें भी नहीं बचाया जा सका।
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि अगर भारत चौकन्ना होता और बाकी दुनिया पर नजर होती तो दूसरी लहर इतनी भयावह नहीं होती। उन्होंने कहा कि भारत में कोरोना के इस सुनामी के पीछे तीन कारण है सरकारों की लापरवाही, दूरदृष्टि और नेतृत्व का अभाव। वैक्सीन लगवाने के संदर्भ में भी सरकारें ढीली रहैं। प्रोफेसर राजन ने वर्तमान में सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की सराहना की और कहा कि सरकार अब बेहद सक्रिय है और इमरजेंसी मोड में काम कर रही है।
भयग्रस्त जनता, चरमराई हुई स्वास्थ्य सेवाएं
पूरे विश्व में कोविड19 के संक्रमण की शुरुआत के समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि संक्रमित गंभीर मरीजों के लिए आक्सीजन की उपलब्धता, आक्सीजन का सपोर्ट आवश्यक है। अमेरिका, इटली सहित यूरोप के लगभग सभी देशों में, जहां की स्वास्थ्य सेवाएं काफी उत्कृष्ट रही है, कोरोना से लोगों को ऑक्सीजन और वेंटिलेटर के अभाव में तड़प तड़प कर मरते हुए देखा गया। पिछले वर्ष लगभग इसी समय लगे लाक डाउन ने लाखों जिंदगियां बचा लीं,
हालांकि प्रवासी मजदूरों को तमाम शारीरिक, मानसिक व आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा, जोकि दुर्भाग्यपूर्ण था। महामारियो और उनके प्रभावों के अध्येताओं के अनुमानों व भविष्यवाणीयों तथा पिछली महामारीओं के अनुभव को तो छोड़िए, कोविड 19 के संक्रमण के दूसरे देशों के अनुभव से भी हमारे नीति नियंता या हम लोग ज्यादा सीख नहीं ले पाए! उल्लेखनीय है कि 1918 की स्पेनिश फ्लू में भी दूसरी लहर में अत्यधिक लोग मारे गए थे।
जब मार्च 2020 में प्रधानमंत्री ने अचानक पूरे देश में लाक डाउन की घोषणा की थी तब हमारे पास मास्क, सेनीटाइजर जैसे कई जरूरी चीजें भी नहीं थी। वे संसाधन जो कि इस महामारी से निपटने के लिए आवश्यक थे बिल्कुल नहीं थे। उस समय की इस देशव्यापी लॉकडाउन के कारण संसाधन जुटाने के लिए समय मिल गया। और देश काफी सफलतापूर्वक महामारी से लड़ा। दूसरे तमाम देशों की अपेक्षा जनधन की हानि कम हुई, संक्रमण भी कम हुआ। लेकिन दूसरी लहर में भारत चूक गया। इस समय के जिस तरह के हालात शहरों में हैं उसे देख कर यह कल्पना करना मुश्किल हो रहा है कि सरकारों ने इस महामारी से निपटने के लिए साल भर में कुछ तैयारी भी की है!
सरकार ने तो कोरोनावायरस जीतने की घोषणा कर ही दी थी परंतु वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी के बावजूद महामारी के देश में इस तरह फैलने की कल्पना नहीं की थी। विश्व के दूसरे देशों में जब महामारी की दूसरी या तीसरी लहर चल रही थी तब भी केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। जब महाराष्ट्र में कोरोना के आंकड़े बढ़ रहे थे उससे भी दूसरी राज्य सरकारों ने सबक नहीं लिया। जब मार्च 2021 में लगभग 12 बड़े राज्यों में यह बीमारी हाहाकार मचा रही थी तब भी अस्पतालों में आवश्यक सुविधाओं को बढ़ाने और इसके लिए लोगों को सही ढंग से जागरूक करने का प्रयास नहीं किया गया।
ऑक्सीजन की जरूरत इतने बड़े पैमाने पर पड़ने वाली है इसका आकलन करने में विशेषज्ञों के अलावा सरकार पूरी तरह से चूक गई। इसके साथ-साथ अनेक राज्यों में चुनाव और निजी सामाजिक आयोजन भी साथ में चलते रहे, लोग बाजारों में बिंदास घूमते रहे और सरकार की तरफ से भी इसके प्रति पूरी ढिलाई बरती गई। मार्च के अंत तक और अप्रैल में जब स्थिति विकराल हुई तो आक्सिजन, बीएड, दवाएं वेंटिलेटर, जांच किट सभी का संकट था लोग भी मस्त है और सरकारें सिर्फ आश्वासन देती दीखी।
सरकारें इस प्रश्न से अपना पीछा नहीं छुड़ा सकती हैं कि 1 वर्ष में सरकारों ने इस महामारी को कमजोर करने के लिए, या इससे निपटने के लिए क्या किया, सिवाय वैक्सीन के इंतजार के! पीएम केयर्स फंड से पिछले वर्ष 58850 वेंटिलेटर खरीदने की घोषणा हुई थी लेकिन एक वर्ष बाद तक 29695 ही खरीदे गए। जो खरीदे भी गए हैं वह कई गोदामों में धूल फांक रहे हैं, कुछ अस्पतालों में पहुंच गए हैं वहां उसे चलाने वाले प्रशिक्षितों की कमी है।
पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने इसकी गंभीरता को देखते हुए एक नौ सदस्यीय कमेटी भी बनायी थी, जिसने अपनी रिपोर्ट राज्यसभा अध्यक्ष को नवंबर 2020 में दी थी। सरकार ने ऑक्सीजन प्लांट लगाने के लिए प्रक्रिया भी शुरू कर दी। परंतु प्रशासनिक तंत्र के धीमेपन के कारण यह काम काफ़ी धीमा रहा और आक्सीजन उत्पन्न करने के लगभग 165 प्लांट लगाने के लिए निविदा आमंत्रित करने में ही लगभग 8 महीने लग गए, जबकि इन प्लांट्स की कुल लागत लगभग मात्र 200 करोड़ रुपये थी। अभी तक मात्र 33 इंस्टॉल हुए। बाकी का काम अधूरा पड़ा हुआ है और वेंडर अस्पतालों के संपर्क में नहीं है। ऑक्सीजन की कमी और मर रहे लोगों इस भयावह स्थिति में भी केंद्र और राज्य एक दूसरे पर दोष लगाने में पीछे नहीं रह रहे हैं। महामारी से निपटने के लिए देश के अंदर और देश की सीमाओं पर जिस प्रकार की तैयारी की जरूरत थी वह बिल्कुल नहीं किया गया। जो कुछ किया गया वह भी महज खानापूर्ति ही थी। जो कुछ कदम उठाए गए वह भी जमीनी स्तर पर लागू नहीं हुए या हुए भी तो बहुत देर से हुए या आंशिक हुए।
1991 के बाद भी जनसंख्या के हिसाब से स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने के लिए प्रयास नहीं किया गया और सार्वजनिक स्वास्थ्य ढाँचा और कमजोर हुआ। निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर लोगों की निर्भरता बढ़ी है। इसका परिणाम यह है कि आम व्यक्ति ज्यादातर लूट का शिकार है। निजी स्वास्थ्य सेवाओं को उसे काफी बढ़ी हुई कीमत पर हासिल करना पड़ता है। 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद के 2.5% तक किए जाने की बात की गई थी परंतु यह अभी भी लगभग 1.5 % पर ही है । यदि निजी क्षेत्र द्वारा किए जा रहे व्यय को जोड़ भी ले तो भी जीडीपी के 3.6% के बराबर होगा। यह दुखद है कि देश में शिक्षा और स्वास्थ्य पर पर्याप्त ध्यान सरकारों ने नहीं दिया है। जबकि देश के संपोषणीय विकास में इन दोनों का योगदान सबसे अधिक होगा। सार्वजनिक स्वास्थ सेवाओं पर भारत का व्यय जहां जीडीपी का मात्र डेढ़ प्रतिशत है वहीं अमेरिका का लगभग 16%, जर्मनी का 11.2%, चीन का 2.3% और ब्राजील का 3.9% है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर हुए व्यय से ना सिर्फ मानव संसाधन मजबूत होता है, देश में गुणवत्तापूर्ण रोजगार बढ़ता है बल्कि जीडीपी में तेज वृद्धि सुनिश्चित होती है।
देश में अभी भी डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की बेहद कमी है। जनसंख्या के लिहाज से देखें तो लगभग 600000 डॉक्टरों और 20 लाख पैरा स्टाफ की कमी है। जो स्वास्थ्य सुविधाएं, आधारिक संरचना है वह भी काफी लचर है। एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार 65% शहरी और लगभग 54% ग्रामीण आबादी निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर है। यह बेहद निराश करने वाली तस्वीर इसलिए भी है क्योंकि अधिकतर निजी सेवाएं की गुणवत्ता बेहद घटिया है और वह मरीजों की लूट का कारण है। वस्तुतः प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं सभी व्यक्तियों को मुफ्त में या बेहद कम दाम पर मिलने की व्यवस्था सरकारों को करनी चाहिए।
अर्थव्यवस्था के लिए संशोधित अनुमान
इस बार संक्रमण की सुनामी ज्यादा तीव्र और व्यापक है। अभी अर्थव्यवस्था पर इसके होने वाले नुकसान का आकलन कठिन है। हांलाकि पिछली लहर की अपेक्षा आंशिक लॉक डाउन लगने के कारण और अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव काफी कम होगा। 2020 में कोरोना को नियंत्रित करने के साथ लगे लॉक डाउन के खुलने के बाद अर्थव्यवस्था में ना सिर्फ संक्रमण के नियंत्रण में सफलता मिली थी बल्कि हाल के कुछ महीनों में अर्थव्यवस्था तेजी से समृद्धि के पथ पर बढ़ने लगी थी। सभी ने अनुमान लगाया था कि अगले वर्ष अर्थव्यवस्था के समृद्ध दर 10% से ऊपर रहेगी। परंतु इस दूसरी लहर में संक्रमण जितनी तेजी से बढ़ा है और अनेक राज्य लॉक डाउन लगाने को मजबूर हो रहे हैं उससे अर्थव्यवस्था निश्चित रूप से कई तरह से प्रभावित हुई है और आगे भी होगी। आपूर्ति श्रृंखला में निश्चित ही बाधा आएगी और मुद्रास्फीति की दर बढ़ेगी। भारतीय रिजर्व बैंक के मासिक बुलेटिन में भी मुद्रास्फीति के खतरे की तरफ इशारा किया गया है। आपूर्ति श्रृंखला में पैदा हुए अवरोध के चलते कीमतों में वृद्धि के खतरे को देखते हुए केंद्रीय बैंक द्वारा मौद्रिक नीति में ढील देने की संभावना समाप्त हो गई है। ऐसे में बाज़ार में पर्याप्त तरलता होते हुए भी आर्थिक समृद्धि प्रभावित हो सकती है।
2020-21 में तमाम वैश्विक संस्थाओं ने भारत में 10 से 15% की दर से आर्थिक समृद्धि का अनुमान लगाया था। लेकिन कोरना की दूसरी लहर ने सारे अनुमान ध्वस्त कर दिए हैं। अगर यही स्थिति रही तो केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो सकती है। ऐसे में ऋण लेकर आर्थिक पैकेज देना भी सरकार के लिए मुश्किल हो जाएगा, ऋण पर आने वाले ब्याज के बोझ से ही निपटने में सरकार हाफ़ जाएगी। अमेरिकी एजेंसी गोल्डमैन सैक्स ने भी भारत के आर्थिक समृद्धि दर को 2021-22 के लिए 11.7% से घटाकर 11.1% कर दिया है। बर्कले के अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि जून के अंत तक लॉक डाउन रहेगा और इस कारण 2021-22 वित्तीय वर्ष में भारत के वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की समृद्धि में एक प्रतिशत की कमी आएगी।एक अन्य वित्तीय संस्था बर्कले का अनुमान है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2020-21में 10% रहेगी। इससे पूर्व भारतीय स्टेट बैंक ने समृद्धि दर के अनुमान को 11% से घटाकर 10.4% कर दिया था। जबकि इंडिया रेटिंग ने भी इसे 10.4% से घटाकर 10.1% कर दिया था। परंतु पिछले कुछ दिनों में कोविड केसेस जिस प्रकार बढ़े हैं और राज्य लगातार लॉकडाउन बढ़ाते जा रहे हैं उसे देखते हुए ऐसा लग रहा है कि समृध्दि के अनुमानों में आगे भी संशोधन करने पड़ेंगे।
संक्रमण रोकने के लिए लाकडाउन जरुरी!
जिस तरह से मौतें हो रही हैं और स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह से चरमराई हुई है, लोग स्वास्थ्य सुविधाओं और ऑक्सीजन के अभाव में मर रहे हैं इसे देखते हुए जनता के मन में भय व्याप्त है। लोगों की मोबिलिटी में काफी कमी आई है, अब लोग स्वयं ही घरों से कम निकल रहे हैं। वितरक, थोक व्यापारी, फील्ड एजेंट्स सभी डरे हुए हैं और बहुत सक्रिय होकर कार्य करना नहीं चाह रहे हैं। इसीलिए उद्योग जगत भी संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए पहली बार लॉकडाउन के पक्ष में दिख रहा है। इस आशा में कि थोड़े समय के लिए लॉकडाउन से भले ही नुकसान हो लेकिन उसके बाद मांग में तेज उछाल से मध्यावधि में ही उस नुकसान की भरपाई हो जाएगी, जैसा कि पिछले लॉकडाउन के बाद देखा गया था।
कोविड-19 दूसरी लहर में उद्योग जगत भी सकते में है और डरा हुआ है। सीआईआई और फिक्की जैसे उधोग संगठन लॉकडाउन के पक्ष में है। याद कीजिए पिछले लॉकडाउन के समय बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज ने गुस्से में कहा था कि इस lock-down से इंफेक्शन नीचे नहीं आएगा बल्कि जीडीपी तेजी से नीचे आ जाएगा। आज जबकि एक दिन में कोविड से संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या 400000 से पार चली गई , मरने वालों के आंकड़े अभी भी लगातार बढ़ रहे हैं , ऐसे में उद्योग जगत को संक्रमण को रोकने का अंतिम सहारा लॉकडाउन ही नजर आता है। सीआईआई के अध्यक्ष उदय कोटक ने कहा कि जीवन रक्षा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए और सभी गैर आवश्यक गतिविधियों को तुरंत रोक देना चाहिए। हिंदुस्तान लीवर के संजीव मेहता ने कहा कि सिस्टमैटिक तरीके से लॉक डाउन लगाया जाना आज की आवश्यकता है। अब केंद्रीय कोविड-19 टास्क फोर्स भी, जिसमें एम्स और आईसीएमआर के विशेषज्ञ सम्मिलित हैं, राष्ट्रीय लॉक डाउन के पक्ष में दिख रहे हैं।
उद्योग जगत के साथ ही विशेषज्ञों ने भी अब लॉकडाउन की वकालत करनी शुरू कर दी है। अमेरिका के प्रसिद्ध महामारी विशेषज्ञ डॉ एंथनी फौसी ने भी भारत को कड़े लाक डाउन की सलाह दी है इससे संक्रमण की निरंतरता और प्रसार को रोकने तथा संक्रमण के चक्र को तोड़ने में मदद मिलेगी। अमेरिका के लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉक्टर एंथनी फासी ने अभी भारत को यह भी सलाह दी है कि इस महामारी से लड़ने में सेना को लगाना चाहिए और तत्काल अस्थाई अस्पताल व अन्य चिकित्सा सामग्री उपलब्ध कराना चाहिए। उन्होंने यह भी सुझाव दिया की भारत में टीकाकरण को तेजी से बढ़ाना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीका लगाया जाना चाहिए।
अभी सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार को लॉक डाउन की सलाह दी है। इससे पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को प्रदेश में लॉकडाउन लगाने का आदेश दिया था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने समाज के निचले तबकों पर लॉकडाउन के प्रभाव को लेकर चिंता भी जताई है और यह भी कहा है कि लॉकडाउन से होने वाले उनके नुकसान की भरपाई करना और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना सरकार का दायित्व है।
पहली बार जब 2020 में लॉकडाउन लगाया गया था तो अचानक ही सारी आर्थिक गतिविधियां ठप हो गई थी, उद्योगों को भारी नुकसान हुआ था, जीडीपी में तेज गिरावट आई, शहरों से बदहवास होकर लोग अपने घरों की तरफ भागे। प्रवासी मजदूरों की अफरा तफरी और उनके कष्ट देखकर अनेक लोगों ने लाकडाउन की आलोचना की। इसलिए अब इस दूसरी लहर में भी केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगाने से परहेज कर रही है।
विशेषज्ञों, औद्योगिक संगठनों, सुप्रीम कोर्ट, विपक्ष के कुछ बड़े नेताओं द्वारा लॉकडाउन लगाने की मांग के बावजूद केंद्र सरकार लॉकडाउन के पक्ष में नहीं है। उसका मानना है कि इससे वंचित तबके, गरीबों की मुसीबत बढ़ेगी। हालांकि कई राज्यों ने सीमित या पूर्ण लॉकडाउन लगा रखा है और उसका असर भी दिख रहा है। लेकिन जिन राज्यों में संक्रमण ज्यादा है वे राज्य सरकारें कठोर लाकडाउन लगा रही हैं क्योंकि इसके बिना संक्रमण कम नहीं होगा ।
अर्थव्यवस्था की सेहत भी खतरे में!
पिछले वर्ष लगे लॉक डाउन का अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा था। सबसे कम कृषि क्षेत्र प्रभावित हुआ था, लेकिन लॉकडाउन से कृषि आगतों और उत्पादों की खरीद-फरोख्त में काफी कठिनाई और विलंब होता है। सबसे बुरा प्रभाव सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योगों पर पड़ता है। विशेष रूप से असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोग बुरी तरह प्रभावित होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी रोजगार बुरी तरह प्रभावित होता है और बंदी से बेरोजगारी में तेज वृद्धि होती है। इसी कारण केंद्र सरकार संपूर्ण लखनऊ लगाने से डर रही है। लॉकडाउन में होटल, व्यापार और यातायात क्षेत्र को सबसे अधिक प्रभावित होते हुए देखा गया है। तो बेरोजगारी बढ़ रही है, उपभोक्ता सेंटीमेंट में तेजी से गिरावट आई है अप्रैल में पेट्रोल और डीजल बिक्री में गिरावट आई है इसी प्रकार ईवे बिल की संख्या में भी गिरावट आई है।
एक बहुत बड़े तबके का आज अर्जन बंद हो जाता है और इससे वस्तुओं व सेवाओं की मांग में तेजी से कमी आती है। जब मांग नहीं होगी तो उत्पादन भी नहीं होगा रोजगार भी नहीं बढ़ेगा। इससे कंपनियों पर भी आर्थिक दबाव बढ़ता है। जो कंपनियां ऋण ले रखी हैं उनकर ऊपर दबाव और अधिक होता है। यदि मांग और उत्पादन में वृद्धि नहीं हुई तो वे दिवालिया होने की कगार पर पहुंच जाती हैं। एक बड़े तबके की आय में कमी होने से अर्थव्यवस्था में बचतों का और इसलिए निवेश का स्तर भी काफी कम हो जाता है। इस प्रकार से बड़े उद्योगों के सामने भी वित्तीय संकट खड़ा हो सकता है।
अभी कुछ दिन पूर्व केंद्रीय बैंक ने अपनी साख नीति घोषित करते समय यह बताया कि 2020-21 में अर्थव्यवस्था में 7.5% की गिरावट आई। केंद्रीय बैंक ने 2021- 22 में 10.5% आर्थिक समृद्धि का अनुमान लगाया है लेकिन साथ ही साथ यह चेतावनी भी दी कि कोरना संकट को देखते हुए इसमें नीचे जाने का खतरा है। केयर रेटिंग ने महाराष्ट्र में जो अध्ययन किया है उसके अनुसार महाराष्ट्र को लॉक डाउन से 40000 करोड रुपए से ज्यादा का नुकसान हो सकता है। महाराष्ट्र का भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 14.2% का योगदान है। महाराष्ट्र के राष्ट्रीय उत्पादन में महत्वपूर्ण हिस्से को देखते हुए एजेंसी का अनुमान है कि इससे राष्ट्रीय स्तर पर सकल मूल्यवर्धन में 0.32% की कमी हो सकती है। अन्य राज्यों में लगातार लाकडाउन की अवधि बढने से आगे अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर पर और अधिक नकारात्मक प्रभाव पडेगा।
इस बार जिस प्रकार से दवाओं पर और हॉस्पिटल पर लोगों का खर्च बढ़ रहा है और जितनी बड़ी संख्या में लोग हताहत हो रहे हैं उससे कोरोना की पहली लहर की अपेक्षा दूसरी लहर में लोग अपनी आर्थिक स्थिति को भी लेकर काफी चिंतित है। लोग कठिन समय के लिए और अधिक बचत करने को प्रेरित हो रहे हैं। जबकि आय अर्जन की अनिश्चितता बढ़ रही है। क्योंकि सरकारें और विशेषज्ञ भी तीसरी लहर की बात कर रहे हैं इसलिए दूसरी लहर में ज्यादातर बड़े शहरों में लोग आगे और अधिक बचत करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। बड़े शहरों से प्रवासी श्रमिकों का पलायन पहले ही शुरू हो गया था, रेलगाड़ी और बसें चलते रहने से इस बार उन्हें विशेष परेशानी नहीं हुई। हवाई यातायात भी गिरकर आधे से कम हो गया है, तमाम महत्वपूर्ण परीक्षाएं स्थगित या रद्द कर दी गई हैं, शादियों पर भी प्रतिबंध हैं और ज्यादातर शहर की सड़कें सूनी है, सार्वजनिक स्थल बंद है।
आर्थिक गतिविधियों पर असर तो दिख रहा है और आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित हुई है। आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति घटी है और कीमतें तेजी से बढ़ी है। शहरों से मजदूरों के पलायन के कारण विनिर्माण क्षेत्र सहित अनेकों उद्योग संकट में है। राज्य स्तर पर लगे लॉक डाउन के कारण मजदूरों के साथ-साथ वस्तुओं की आवाजाही भी प्रभावित हुई है और वस्तुओं सेवाओं के उपभोग में काफी कमी आई है। बेरोजगारी दर में तेज वृद्धि चिंता में डालने वाली है। सी एम आई ई की रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल में बेरोजगारी दर लगभग 8 फ़ीसदी पर पहुंच गई है, यह मार्च में लगभग सिक्स पॉइंट 6.9 प्रतिशत और फरवरी में 6.5 प्रतिशत थी। ग्रामीण क्षेत्रों में मार्च के मुकाबले अप्रैल में डीजल की डिमांड में 1.2% और पेट्रोल की मांग में 6.3% की कमी हुई है। ई वे बिल का सृजन मार्च की तुलना में अप्रैल में 17% कम हुआ है अर्थात जीएसटी संग्रह में भी कमी आ रही है। अनुमान है कि राज्यों के आंशिक और लॉक डाउन से जीडीपी में लगभग 1% तक की कमी आ सकती है हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि यह सुस्ती जून महीने के बाद तेजी से कम होगी।
रिजर्व बैंक सतर्क, महत्वपूर्ण घोषणाएं
5 मई को भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने अचानक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कोरोना की दूसरी लहर से निपटने के लिए अनेक महत्वपूर्ण घोषणाएं की, जो कि बेहद सकारात्मक है। अच्छी बात यह है कि रिजर्व बैंक द्वारा उठाए गए कदम न सिर्फ बेहद महत्वपूर्ण हैं बल्कि यह कदम समय से उठाए गए हैं। इन उपायों में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों के लिए विशेष ध्यान रखा गया है। रिजर्व बैंक के कदम से बैंकिंग सेक्टर को भी काफी मजबूती मिलेगी और अर्थव्यवस्था में लिक्विडिटी बढ़ेगी।
रिजर्व बैंक के गवर्नर ने प्रेस से बात करते हुए कहा की केन्द्रीय बैंक कोविड की परिस्थितियों पर नजर बनाए हुए है। दुनिया के मुकाबले भारत में अर्थव्यवस्था में सुधर तेज से हो रहा है, लेकिन पहली लहर के मुकाबले दूसरी लहर ज्यादा खतरनाक है। पहली लहर के बाद अर्थव्यवस्था में बेहतर रिकवरी देखी गई थी। उन्होंने उम्मीद जताई की अच्छे मानसून की वजह से गांवों में मांग बढ़ेगी। उन्होंने कोरोना की दूसरी लहर से लड़ने के लिए फार्मा क्षेत्र के लिए बड़ी घोषणा की, बैंकों द्वारा 31 मार्च 2022 तक अस्पतालों, ऑक्सीजन आपूर्तिकर्ताओं, वैक्सीन आयातकों, कोविड दवाओं के लिए रेपो दर पर 50,000 करोड़ रुपये के प्राथमिकता पर आधारित दिया जायेगा। रेपो दर इस समय मात्र 4 प्रतिशत है। केवाईसी को लेकर भी रिजर्व बैंक ने बड़ी छूट देते हुए वीडियो केवाईसी और नान फेस टू फेस डाक्यूमेंट वेरिफिकेशन को बढ़ावा देने को कहा।
यदि पहली बार में इस सुविधा का लाभ न लिया हो तो 25 करोड़ रुपये तक कर्ज लेने वाले व्यक्तिगत, छोटे उधारकर्ताओं को ऋण के पुनर्गठन का दूसरा मौका दिया गया है। बैंकों को कमजोर क्षेत्रों को कर्ज देने के लिए रिजर्व बैंक सहयोग देगा। बैंक अपनी बैलेंस शीट में कोविड लोन बुक बनाएंगे। बैंक अपनी कोविड बुक के बराबर ही रकम रिजर्व बैंक के पास रख सकते हैं। इसके बदले बैंकों को रेपो रेट से 40 बेसिस पॉइंट ज्यादा ब्याज मिलेगा।उन्हें रिवर्स रेपो रेट से 40 बेसिस पॉइंट यानी 0.4 फीसदी ज्यादा ब्याज मिलेगा।उन्होंने कहा कि बैंकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है कि वे कमजोर क्षेत्रों को लोन दें।
राज्य सरकारों को राहत पहुंचाने के लिए रिजर्व बैंक ने ओवरड्राफ्टिंग की सीमा 36 दिन से बढ़ाकर 50 दिन कर दी है। वही लगातार ओवरड्राफ्टिंग की सीमा 40 दिन से बढ़ाकर 21 दिन कर दी गई है. इस सुविधा के जरिए राज्य केंद्रीय बैंक से ज्यादा फंड उधार ले पाएंगे।उन्होंने कहा कि मॉनसून के इस साल सामान्य रहने का अनुमान जारी किया गया है जिसका महंगाई पर सकारात्मक असर रहेगा। खाद्यान्न उत्पादन पिछले साल भी अच्छा रहा है। कारोबार जगत के लोग यह सीख चुके हैं कि भौतिक प्रतिबंधों के बीच किस तरह से काम किया जाए. लेकिन मांग पर दबाव रहेगा।
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