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Home » Blog » जरुरी कृषि सुधारों के विरोध में किसान !
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जरुरी कृषि सुधारों के विरोध में किसान !

adminBy adminApril 8, 2022Updated:April 8, 2022No Comments44 Mins Read
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डॉ. उमेश प्रताप सिंह 
भूमिका 
1991 में जिन आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई उसके बाद से अनेक क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप में कमी आई लेकिन बड़े किसानों की लाबी के दबाव के कारण ऐसा ही सुधार कृषि क्षेत्र में संभव नहीं हो सका। केंद्र सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्‍य रखा है। इसके लिए केंद्र सरकार ने कई तरह की योजनायें शुरू की, जैसे  मृदा स्वास्थ्य कार्ड, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, कृषि के लिए अधिक संस्थागत ऋण सुविधा और दालों का बफर स्टॉक बनाना आदि। इसी क्रम में सरकार ने कृषि क्षेत्र में संरचनात्मक सुधार के लिए 3 नए कृषि कानूनों के लिए अध्यादेश जारी किया और बाद में इसे संसद के मानसून सत्र में पेश किया। राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद केंद्र सरकार ने 27 सितंबर को तीनों कृषि कानूनों को भारत के राजपत्र में अधिसूचित कर दिया।
कृषि कानूनों के पास होने के बाद से ही विपक्ष का विरोध शुरू हो गया। लेकिन सबसे ज्यादा विरोध पंजाब में हो रहा है और वहां के किसान तब से लगातार आंदोलनरत है। हजारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर इस सर्द मौसम में बैठे हुए हैं। इन्हीं कानूनों के कारण इससे पहले केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने भी इस्तीफा दे दिया था।2019- 20 में 162.33 लाख टन के विरुद्ध 2020-21 में सरकारी एजेंसियों ने रिकॉर्ड 202.77 टन धान की खरीद की, जो कि एक रिकॉर्ड है। इससे पहले 2017-18 में धान की खरीद 176.61 लाख टन की थी। यह क्या संयोग मात्र है कि इसी वर्ष किसान 25 से अधिक दिन हो गए, और आंदोलन का रिकॉर्ड बना रहे हैं।
किसान अपनी दो मुख्य मांगो, तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया जाए और एमएसपी को कानूनी बनाया जाए, के लिए न सिर्फ प्रतिबद्ध दिख रहे हैं बल्कि इस आंदोलन को अगले कई महीनों तक जारी रखने की पूरी व्यवस्था भी किए हुए हैं। किसानों का यह आंदोलन अभूतपूर्व है क्योंकि इससे पूर्व किसानों का इतना व्यवस्थित और लंबा, और लगभग शांतिपूर्ण, आंदोलन नहीं दिखा। बहुत सारे आरोपों के बावजूद  यह आंदोलन अपने को अपनी माँगों  तक केंद्रित रखने और अपनी हनक बनाये रख सकने में पूरी तरह से सफल रहा है।पंजाब में किसान संगठन काफी मजबूत है, जो कि किसी  एक पार्टी से सिर्फ संबंधित नहीं है, दूसरी तरफ हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के  ज्यादातर किसान संगठनों का भी  समर्थन मिल रहा है। इसलिए सरकार इस आंदोलन को लेकर बेहद चिंतित है और सरकार के विरोधी और राजनीतिक पार्टियां हों या राष्ट्र विरोधी ताकतें हों, इस अवसर को भुनाने में लगे हुए हैं और किसानों के कंधे पर बन्दुक रखकर अपने स्वार्थ साध रहे हैं। अब तक लगभग दो दर्जन किसानों ने अपनी जान गंवा दी है, लेकिन अभी भी इस आंदोलन का अंत नजर नहीं आ रहा है।
हरित क्रांति से एकपक्षीय कृषि विकास !
हरित क्रांति के दौरान राज्य ने कृषि में उपयोग होने वाले अनेक आगतों पर सब्सिडी दी और उनके उत्पादों के बेहतर कीमत देने का भी भरोसा सुनिश्चित किया। यह उत्पादन बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भी आवश्यक था। किसानों को अपने उत्पाद की बेहतर कीमत मिले और पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन और भंडारण सुनिश्चित हो सके, इसके साथ ही साथ खाद्यान्नों की कीमतें गरीब तबके के लिए बहुत न बढ़े, इन सभी बातों का सरकार ने ध्यान रखा।
न्यूनतम समर्थन मूल्य के लगातार बढ़ते रहने से खाद्यान्नों का उत्पादन भी वैसा ही लाभदायक हो गया जैसा कि नकदी फसलों का। इसलिए बड़े किसानों ने इसका भरपूर लाभ उठाया। समर्थन मूल्य के कारण गेहूं और चावल का उत्पादन इतना लाभदायक हो गया कि उन क्षेत्रों में भी इनका उत्पादन होने लगा जहां की मिट्टी दूसरी फसलों के लिए बेहतर थी। ऐसे में जल का अंधाधुंध दोहन हुआ, रसायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग हुआ। इसके नुकसान इन क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं। यह सब कुछ मोटे अनाजों और अन्य महत्वपूर्ण फसलों की कीमत पर हुआ। जिसका दुष्परिणाम पिछले कुछ दशकों से दिख रहा है। मोटे अनाज, दलहन व तिलहन वाली फसलें भूमि की उर्वरता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण साबित होती हैं इनमें पानी और रासायनिक उर्वरक भी कम लगता है। इससे जरूरी फसल चक्र परिवर्तित होता रहता है। आज हम दलहन, तिलहन को आयात  कर रहे हैं; मोटे अनाजों का उपभोग कम कर दिए, इसका असर स्वास्थ्य पर दिख रहा है। दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में भारी कमी आई है।
पंजाब और हरियाणा तथा पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों का विरोध पूरे देश में कृषि के बेहद असमान विकास को दिखाता है और साथ ही यह भी दिखाता है कि इस क्षेत्र के किसान अपनी फसलों को बेचने के लिए और उससे प्राप्त होने वाले लाभ के लिए किस प्रकार से सरकारी खरीद पर निर्भर है। 
2019-20 में गेहूं के कुल सरकारी खरीद का 76%, चावल के कुल खरीद का 37% अकेले पंजाब हरियाणा और उत्तर प्रदेश से आया। 2020 21 में लगभग 90% हिस्सेदारी चावल की खरीद में इन्हीं तीन राज्यों की रही है जबकि गेहूं में यह हिस्सेदारी लगभग 62% है। सबसे बड़ा लाभार्थी पंजाब है। इसीलिए न्यूनतम समर्थन कीमत का सबसे अधिक लाभ और ए पी एम सी  और एम एस पी के तंत्र में सबसे अधिक भ्रष्टाचार भी पंजाब में है।
भारत की की कृषि नीति  चावल और गेहूं नीति नहीं हो सकती। हरित क्रांति मुख्यतः गेहूं क्रांति बनकर रह गई और इसके दुष्प्रभावों को जानने के बाद भी हरित क्रांति से लाभ उठाने वाले राज्य उसे दूर करने के सार्थक प्रयास नहीं कर पाए। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति का सबसे अधिक फायदा मिलने का कारण यह था कि वहां सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध थी, वहां कृषि संबंधी शोध से लेकर हर प्रकार की आधारिक संरचना मजबूत थी। किसान उस पैकेज प्रोग्राम (उन्नत किस्म के बीज, सिंचाई, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक) में निवेश करने में सक्षम थे। लेकिन बिना पारिस्थितिकी संतुलन का ध्यान रखे इन क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया गया और अनेक पारंपरिक फसलों, जोकि भूमि की गुणवत्ता और परिस्थितिकी संतुलन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण थी,  की कीमत पर गेहूं और चावल की खेती को बढ़ाया गया।
नये कृषि कानून 
नए कानून के अनुसार किसानों को अपने कृषि उत्पादों को पूरे देश में कहीं भी बेचने की आजादी से सबसे अधिक नुकसान बिचौलियों या मध्यस्थों को होगा और फिर राज्य सरकारों को, क्योंकि नए कानून के तहत मध्यस्थों को मिलने वाले कमीशन और कटौतियां तथा राज्य सरकारों को मिलने वाले कर का एक बड़ा हिस्सा उन्हें प्राप्त नहीं हो सकेगा।
प्रथम, कृषि उत्पाद व्यापार और वाणिज्य विधेयक-2020 का उद्देश्य किसानों के लिए पंजीकृत कृषि उत्पाद विवरण समिति या एपीएमसी मंडियों के बाहर कृषि बिक्री और विपणन को खोलना है। यह अंतर राज्य व्यापार के अवरोधों को भी समाप्त करता है और कृषि उत्पादों के इलेक्ट्रॉनिक व्यापार के लिए भी एक फ्रेमवर्क प्रदान करता है। एपीएमसी मंडीयों के बाहर यह राज्य सरकारों को व्यापार के लिए बाजार फीस, सेस या लेवी संग्रहण के लिए भी प्रतिबंधित करता है। यूपीएमसी मंडियों के एकाधिकार को खत्म करने को न्यूनतम समर्थन कीमतों पर खाद्यान्नों की निश्चित वसूली के समाप्त होने की शुरुआत के रूप में भी देखा जा रहा है। बिल में मार्केटिंग और ट्रांस्पोर्टेशन पर ख़र्च कम करने की बात कही गई है ताकि किसानों को अच्छा दाम मिल सके. इसमें इलेक्ट्रोनिक व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा मुहैया कराने की भी बात कही गई है.
दूसरा, मूल्य आश्वासन व कृषि सेवा विधेयक-2020 संविदा कृषि या कांट्रैक्ट फार्मिंग से है जो कि कृषि उत्पादों की खरीद और बिक्री के लिए व्यापार समझौतों पर एक फ्रेमवर्क प्रदान करता है। कीमत आश्वासन बिल या प्राइस एस्योरेंस बिल कीमत शोषण के विरुद्ध किसानों को संरक्षण देता है, परंतु यह कीमत तय करने के लिए किसी मैकेनिज्म को नहीं बताता है। इस क़ानून के तहत किसान कृषि व्यापार करने वाली फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ कॉन्ट्रैक्ट करके पहले से तय एक दाम पर भविष्य में अपनी फ़सल बेच सकते हैं.पांच हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले छोटे किसान कॉन्ट्रैक्ट से लाभ कमा पाएंगे. बाज़ार की अनिश्चितता के ख़तरे को किसान की जगह कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग करवाने वाले प्रायोजकों पर डाला गया है. अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी. इसके तहत किसान मध्यस्थ को दरकिनार कर पूरे दाम के लिए सीधे बाज़ार में जा सकता है. किसी विवाद की सूरत में एक तय समय में एक तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है. यहां चिंता यह व्यक्त की जा रही है कि निजी कारपोरेट घरानों को पूरी स्वतंत्रता देने की स्थिति में किसानों का शोषण हो सकने की संभावना है।
तीसरा, आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 अनाज, दालों, खाद्य तेलों, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तु की सूची से हटा देता है। यह संशोधन खाद्य वस्तुओं के उत्पादन, भंडारण, गतिशीलन और वितरण को भी नियंत्रित करेगा। यह कानून कहता है कि स्टॉक लिमिट की सीमा तभी निश्चित की जाएगी जबकि फुटकर कीमतें जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं के संदर्भ में 100% से ज्यादा बढ़ जाती हैं, जबकि खराब ना होने वाली वस्तुओं के संदर्भ में 50% से ज्यादा बढ़ जाती हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन जल्दी खराब होने वाले कृषि उत्पादों को प्रिजर्व रखने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए और ऑफ सीजन में इनकी कीमत में होने वाले उच्चावचन को रोकने के लिए किया गया। इस क़ानून से निजी क्षेत्र का कृषि क्षेत्र में डर कम होगा क्योंकि अब तक अत्यधिक क़ानूनी हस्तक्षेप के कारण निजी निवेशक आने से डरते थे। कृषि अवसंरचना में निवेश बढ़ेगा, कोल्ड स्टोरेज और खाद्य आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण होगा। यह किसी उत्पाद की कीमत की स्थिरता लाने में किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को मदद करेगा। प्रतिस्पर्धी बाज़ार का वातावरण बनेगा और किसी फ़सल के नुक़सान में कमी आएगी। आलोचकों का कहना है कि यह बिल जमाखोरी और कालाबाजारी को कानूनी रूप देता है क्योंकि इन वस्तुओं के व्यापार के लिए अब लाइसेंस की आवश्यकता नहीं होगी।
डर और विरोध क्यों?
वर्तमान कानून की कुछ कमियां हैं, जिनकी ओर किसान संगठन बार-बार इशारा कर रहे हैं और जिनको लेकर के वे काफी सशंकित हैं। वर्तमान कानून में कांट्रैक्ट फार्मिंग एग्रीमेंट के लिए न्यूनतम कीमतों पर स्पष्टता का अभाव है। न्यूनतम समर्थन कीमत सिर्फ सरकारी खरीद में लागू होती है, निजी कांट्रैक्ट के अंतर्गत कीमतें मांग और पूर्ति के द्वारा सामान्यतया निर्धारित होती हैं। यह एमएसपी के तंत्र के अंतर्गत नहीं आता। दूसरी ओर आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन से भी कंपनियां इस स्थिति में होगी कि वह कृषि उत्पादों की बड़ी मात्रा का संग्रहण कर सकने की स्थिति में होंगी। ऐसे में किसानों का डर यह है कि वे कीमतों को प्रभावित कर सकने की स्थिति में होंगी और किसानों को कम कीमतों पर कॉन्ट्रैक्ट करने के लिए बाध्य कर सकने की स्थिति में होंगी। किसानों के पास निजी कंपनियों को अपने उत्पाद को कम दाम में कॉन्ट्रैक्ट करना या बेचना मजबूरी होगी।
किसानों का यह भी डर है कि इस कानून से एपीएमसी मार्केट अंततः कमजोर होगा जिससे दीर्घकाल में उनके पास एपीएमसी मंडियो में भी बेचने का विकल्प समाप्त हो सकता है। हाँलाकि यह अभी सिर्फ एक अनुमान है इ-नाम प्रणाली को मजबूत करके किसानों के इस भय को कम किया जा सकता है। परंतु इस समय इस संदर्भ में निश्चित रूप से कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।
सरकार द्वारा एफसीआई के माध्यम से खरीद सामान्यतः खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए किया जाता है जो कि नए कानूनों के अंतर्गत संशोधित कर दिया गया है। किसानों को यह भय है कि एपीएमसी के बाहर निजी बाजारों के मजबूत होने से एमएसपी प्रणाली के अंतर्गत सरकारी खरीद काफी कम हो जाएगी और बाद में सरकार कम कीमत पर सीधे निजी कंपनियों से खरीद कर सकती है। हालांकि सरकार लगातार आश्वासन दे रही है कि एमएसपी के अंतर्गत खरीद बंद नहीं होगी, लेकिन किसानों को इस आश्वासन में विश्वास नहीं हो रहा है।
कांट्रैक्ट फार्मिंग एग्रीमेंट के तहत विवाद समाधान प्रणाली में भी कानूनों में स्पष्टता का अभाव है। कॉन्ट्रैक्ट में किसी भी प्रकार की विवाद की स्थिति में इसे जिला मजिस्ट्रेट के स्तर पर ही समाधान की व्यवस्था उपलब्ध कराई गई है। परंतु किसानों का डर यह है कि नौकरशाहों को प्रभावित करके कंपनियां अपने हक में फैसले करा सकती हैं। इसलिए विवाद का निपटारा अंततः न्यायिक प्रणाली के द्वारा होना चाहिए। हालांकि सरकार का कहना है कि किसानों को ज्यादा परेशान ना होना पड़े और विवाद जिला स्तर पर ही निपट जाए इसलिए यह व्यवस्था रखी गई थी और सरकार इसमें संशोधन करने के लिए भी तैयार है।
किसानों को एक डर यह भी है कि विवाद की स्थिति में कंपनियां इस स्थिति में होंगी कि वह किसानों की जमीन को कब्जा कर लें। वैसे कानून में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि कोई भी कांट्रैक्ट भूमि को गिरवी रखकर उसे अधिगृहित नहीं कर सकता। किसानों का यह कहना है कि कांट्रैक्ट की भाषा निजी कंपनियों के पक्ष में है। लघु एवं सीमांत किसानों का भय यह है कि वे नए कानून से क्षेत्र में पूजी पतियों के प्रवेश करने पर उन्हें कुछ महीनों के लिए इस क्षेत्र में मिलने वाला काम नहीं मिल पाएगा और वे बेरोजगार रहेंगे।
किसानों का यह भी कहना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन बड़े कॉरपोरेट्स को या कंपनियों को पूरी मूल्य श्रृंखला में अधिक ताकत प्रदान कर सकते हैं और वे बड़े पैमाने पर आवश्यक वस्तुओं का भंडारण करके कृषि वस्तुओं की कीमतों को अपने हिसाब से नियंत्रित कर सकते हैं जो कि उपभोक्ताओं के लिए भी उचित नहीं होगा। यद्यपि सरकार ने स्पष्ट किया है कि यह संशोधन आवश्यक वस्तुओं के भंडारण और कोल्ड स्टोरेज इत्यादि में निजी कंपनियों के निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए किया गया है।
वस्तुतः इन कानूनों में न्यूनतम समर्थन कीमत और एपीएमसी प्रणाली के संदर्भ में कुछ भी नहीं कहा गया है। ना ही एमएसपी के समाप्त होने की बात है और ना ही एपीएमसी मंडीओं को समाप्त करने की बात है, फिर भी यह विरोध एपीएमसी और एमएसपी को ही लेकर है। कानून के विरोधियों का कहना है कि इससे एपीएमसी कमजोर होगा और एमएसपी प्रणाली समाप्त हो जाएगी। बड़े व्यापारिक घरानों के बाजार पर नियंत्रण से किसानों का कृषि उत्पादों के निर्धारण में कोई हाथ नहीं रह जाएगा। केंद्र जहां एक राष्ट्र एक बाजार की बात कर रहा है वही आलोचक ‘एक राष्ट्र और एक एमएसपी’ की बात कर रहा है।
नए कृषि कानूनों की आलोचना विरोधी इसलिए भी कर रहे हैं कि कृषि और बाजार राज्य के विषय हैं और यह कानून राज्य के कार्य में सीधे अतिक्रमण है और संविधान के सहकारी संघवाद की भावना के विरुद्ध है। केंद्र का तर्क यह है कि खाद्य पदार्थों का व्यापार और वाणिज्य समवर्ती सूची का विषय है और यह केंद्र को संवैधानिक अधिकार देता है कि उसके संदर्भ में कानून बना सके।
पंजाब और हरियाणा के किसान ही क्यों?
कृषि क्षेत्र में कृषि वस्तुओं की मूल्य प्रणाली में एक लंबी श्रृंखला के लंबे समय से चले आ रहे बुरे प्रभावों को हटाने के लिए सरकार तीन नए कानून ले आई। इसीलिए ज्यादातर कृषि अर्थशास्त्रियों और शोधकर्ताओं ने इसे सरकार द्वारा उठाया गया एक सकारात्मक कदम माना है। वैसे तो ये कानून पूरे देश के लिए है, लेकिन सबसे अधिक असंतोष पंजाब और हरियाणा के किसानों में है, जिन्होंने कि हरित क्रांति और न्यूनतम समर्थन कीमतों का सबसे अधिक फायदा उठाया है।
पंजाब और हरियाणा के किसान ही सबसे अधिक आंदोलनरत क्यों है, इसे भी समझने की जरूरत है। दोनों ही राज्यों ने एमएसपी वसूली तंत्र का सबसे अधिक फायदा उठाया है। देश के कुल गेहूं उत्पादन में पंजाब का हिस्सा लगभग 18% और हरियाणा का 4% है, जबकि चावल के कुल उत्पादन में पंजाब का हिस्सा लगभग 11% और हरियाणा का लगभग 12% है। 2019-20 में चावल की कुल खरीद का अकेले 21% पंजाब का हिस्सा था जबकि हरियाणा का हिस्सा 8% था। गेहूं की खरीद में इन दोनों राज्यों का हिस्सा 38 और 27% था। 2020 – 21 के गेहूं की रबी खरीद में पंजाब और मध्यप्रदेश का हिस्सा 33% जबकि हरियाणा का 19%था।
इस प्रकार पंजाब और हरियाणा के किसानों ने अपने कुल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा सरकारी वसूली प्रणाली के अंतर्गत बेचा। 2019- 20 में पंजाब के कुल धान उत्पादन का 92% और हरियाणा के कुल उत्पादन का 89% एमएसपी पर सरकारी खरीद से बेचा गया, जबकि गेहूं के संदर्भ में पंजाब के कुल गेहूं उत्पादन का 71% हरियाणा के कुल उत्पादन का 74% सरकारी खरीद के तहत बेचा गया।
इस कानून से निश्चित ही एपीएमसी मंडीओं के बाहर खरीद बिक्री को बढ़ावा देने का उद्देश्य बिचौलियों की श्रृंखला को कम करना या समाप्त करना है। इसलिए आड़तीयों की आय पर या उनके उच्च कमीशन पर असर पड़ना स्वाभाविक है। पंजाब में आढ़तियों का कमीशन, मंडी फीस और सेस एमएसपी का लगभग 8.5% है जो कि प्रतिवर्ष लगभग 4500 से 5000 करोड़ रुपए होता है। पंजाब और हरियाणा के किसानों के विरोध में आढ़तियों का विरोध प्रमुख है, जो कि सामान्यतया बड़े किसान ही है।
पंजाब के किसान खेती में गेहूं- चावल  चक्र पर अधिक निर्भर हैं। पंजाब में सकल फसल क्षेत्र के 45% पर गेहूं और 40% पर चावल की खेती करते हैं जबकि मात्र 1.2% पर गन्ने की खेती करते हैं। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सकल फसल क्षेत्र के 37% पर गेहूं और 17% पर चावल की खेती होती है जबकि 14% क्षेत्र में गन्ना बोया जाता है। इसीलिए पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान गेहूं और चावल की वसूली के कम होने की संभावना से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होंगे। गन्ना बोने वाले किसान इन कानूनों से प्रभावित नहीं होंगे।
ना तो एपीएमसी और ना ही एमएसपी समाप्त हो रहा है फिर भी भविष्य की अनिश्चितता को लेकर के, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान, डरे हुए हैं.  उन्हें  लगता है कि निजी कंपनियों के आने से एपीएमसी उनसे प्रतियोगिता में नहीं टिक पाएंगे और फिर न्यूनतम समर्थन कीमत की प्रणाली धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। 
हरित क्रांति के दौरान पंजाब और हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो बड़े पूंजीवादी किसान और भूमि पति उभरकर आए, वही अब कारपोरेट पूंजी के प्रवेश से अपनी ज़मीन खिसकते देख रहे हैं।इन पूंजीपति किसानों के निर्माण में राज्य के समर्थन की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है-सब्सिडी, एपीएमसी और एमएसपी के रूप में। उन्होंने मजदूरी पर श्रमिकों को रखकर खूब लाभ कमाया है। यही बड़े धनी किसान और भूमि पति महाजन तथा मध्यस्थ भी हैं और अन्य कृषि आधारित व्यापार और वाणिज्य में लगे हुए हैं, और उस पूरे एपीएमसी के तंत्र पर कब्जा किए हुए हैं। यही लोग आज किसान आंदोलन को नेतृत्व दे रहे हैं। यह बड़े पूंजीपति किसान सिर्फ सामाजिक और राजनीतिक हैसियत रखते हैं बल्कि बड़े पैमाने पर छोटे और मझोले किसानों के एक समूह को प्रभावित करने में भी सक्षम हैं।
बिचौलियों और राज्य सरकारों का नुकसान!
एपीएमसी में ज्यादातर बिक्री मध्यस्थों के माध्यम से होती है। एफसीआई भी एमएसपी प्रणाली के अंतर्गत एपीएमसी बाजारों के द्वारा मध्यस्थों से ही खरीदारी करती है, मध्यस्थ या बिचौलिए इसके बदले में कमीशन वसूलते हैं। कांट्रैक्ट फार्मिंग और कहीं भी बेचने की स्वतंत्रता से एपीएमसी बाज़ार में बिक्री में कमी आएगी। इससे सीधे तौर पर बिचौलियों के कमीशन या लाभ में कमी आएगी, जो कि न्यूनतम समर्थन कीमत का लगभग 2.5% है। वर्ष 2019-20 में पंजाब और हरियाणा से लगभग 220 लाख टन गेहूं और 150 लाख टन चावल की सरकारी खरीद हुई। इस प्रकार अनुमानत: 1800 करोड़ रूपया वहां के बिचौलिए खाद्यान्नों के लेनदेन से प्राप्त कर लेते हैं। यह मध्यस्थ गांव में महाजन का भी कार्य करते हैं और काफी ऊंची ब्याज दर पर किसानों को अल्पावधि के लिए ऋण भी देते हैं। सबसे बड़ा खतरा इन्हीं मध्यस्थों या बिचौलियों को है, जोकि बड़े उद्यमियों और तकनीकी के कृषि क्षेत्र में प्रवेश करने से डरते हैं। 
राज्य सरकार एपीएमसी बाजारों में मंडी टैक्स लगाती है जो कि 2.30 से 3.00 प्रतिशत होता है और एपीएमसी बोर्ड के पास जाता है। साथ ही कृषि पर सेस भी लगाती हैं जो कि लगभग 2.30 से 3.00 प्रतिशत होता है जो कि सीधे राज्य सरकार के पास जाता है। जब किसान एपीएमसी मार्केट के बाहर अपने पदार्थ की बिक्री करेगा, तो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग या बाज़ार में बिक्री से राज्य सरकारों की आय भी प्रभावित होंगी।
पंजाब और हरियाणा में 2019-20 में लगभग 295 लाख टन गेहूं और 166 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ था। ऐसे में कांट्रैक्ट फार्मिंग के तहत या ई मार्केट में सीधे उत्पाद बेचने पर पंजाब को लगभग 3300 करोड और हरियाणा को लगभग 1600 करोड रुपए राजस्व के नुकसान होने का अनुमान है। यदि खाद्यान्नों के अलावा अन्य फसलों को भी जोड़ दिया जाए तो यह नुकसान और अधिक आएगा।
सरकार का रवैया सकारात्मक 
18 दिसंबर को मध्य प्रदेश के किसानों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कृषि कानूनों के महत्वपूर्ण बिंदुओं की व्याख्या करते हुए यह बताया कि यह किस प्रकार से किसानों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाएगा। प्रधानमंत्री ने यह भी आश्वासन दिया कि एपीएमसी की वर्तमान प्रणाली और न्यूनतम समर्थन कीमत जारी रहेगी। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन कीमत और वसूली की, अपने कार्यकाल से तुलना करते हुए केंद्रीय सरकार द्वारा किसानों के हित में उठाई गई विभिन्न योजनाओं पर भी प्रकाश डाला। 
प्रधानमंत्री ने कहा कि कृषि क्षेत्र के उन्नयन के लिए प्रतिबद्ध हैं और किसानों की किसी भी समस्या पर बातचीत करने के लिए भी पूरी तरह से तैयार हैं। लेकिन किसानों को यह समझना होगा कि कौन सी चीजें उनके हित में है और उन्हें दूसरे लोगों के बहकाने में नहीं आना चाहिए जो कि उनके कंधे पर बंदूक रखकर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करना चाह रहे हैं। श्री नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा कि यह कानून रातों-रात नहीं आ गए हैं बल्कि इस पर दशकों से चर्चा हो रही है और यह सुधार जरूरी हो गए हैं।
सरकार ने एक समाधानकारी रवैया अपनाया है और वे किसानों के संदेहों को दूर करने के लिए हर तरह के प्रयास कर रही है। सरकार कृषि कानूनों में परिवर्तन के लिए भी तैयार दिख रही है और यह लिखित आश्वासन भी देने को तैयार है कि न्यूनतम समर्थन कीमत जारी रहेगी यदि किसान संगठन उन कानूनों को वापस लेने की मांग छोड़ दें।
नए कृषि कानून में आधिकारिक रूप से राज्य अनुसूचित मंडियों या एपीएमसी संचालित मंडियों कि बाहर व्यापार करने वाली मंडियों पर किसी प्रकार के शुल्क की व्यवस्था नहीं है। इससे मंडी संचालकों को डर है कि इनका धंधा बंद हो जाएगा और लोग मंडियों के बाहर ही व्यापार करेंगे। परंतु अब सरकार ने यह संशोधन करने के लिए स्वीकार कर लिया है कि इन मंडियों के बाहर संचालित निजी मंडियों पर भी इसी प्रकार का शुल्क लगेगा।
दूसरे, राज्य से बाहर आने वाले सभी व्यापारियों को राज्य में अधिसूचित करवाना होगा अपनी कीमतों को डिस्प्ले करना होगा और पूरी पारदर्शिता बरतनी होगी जिससे कि बाजार में स्वस्थ प्रतियोगिता बनी रहे।
तीसरे कांट्रैक्ट फार्मिंग के अंतर्गत भूमि स्वामित्व अधिकार किसी भी स्थिति में पूरी तरह से सुरक्षित रहेगा और अंतिम, कांट्रैक्ट फार्मिंग कानून में विवाद की स्थिति में सीधे सिविल कोर्ट में निपटारे के लिए ले जाया जा सकता है। जबकि नए कानून में इसे 30 दिन के अंदर एसडीएम की कोर्ट में निपटाने की व्यवस्था है।
कृषि उत्पाद विपणन समिति या एपीएमसी-
वर्ष 2000 की शुरुआत में कृषि विपणन और आतंरिक व्यापार को उदार बनाने के लिए अनेक कदम उठाए गए। इसके तहत पुराने कृषि उत्पाद विपणन नियमन अधिनियम की जगह एपीएमसी अधिनियम 2003 का प्रस्ताव किया गया। वर्ष 2006 और 2007 में आवश्यक वस्तु अधिनियम में जो बदलाव किए गए उन्‍हें पूरी तरह से वापस ले लिया गया। वहीं कुछ राज्‍यों में एपीएमसी अधिनियम को भी आंशिक तौर पर लागू किया गया।वर्ष 2002 में आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत कृषिगत वस्तुओं की खरीद, परिवहन और भंडारण से लाइसेंस और परमिट को हटा दिया गया। वर्ष 2015 में राष्ट्रीय कृषि बाजार के लिए इलेक्ट्रोनिक व्यापार मंच की शुरूआत की। ई-नाम से लाई गई इस योजना में प्रत्येक मंडी के लिए 75 लाख रूपये की वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई गई। इसके तहत ऑनलाइन बोली लगाने की सुविधा शुरू हुई। इसके बाद सरकार की तरफ से कृषि विपणन और कुछ अन्य क्षेत्रों में सुधार किए गए।
कृषि उत्पाद विपणन समिति को समाप्त करने को लेकर अनेक कृषि विशेषज्ञों और समितियों ने लगातार सिफारिशें की हैं। इस प्रकार की विपणन समितियों की शुरुआत 1897 में हुई थी इसका उद्देश्य लंका शायर और मानचेस्टर के कपड़ा उद्योग को सस्ता काटन की आपूर्ति करना था| ऐतिहासिक तथ्य दिखाते हैं कि इन समितियों ने किसानों की बहुत ही कम मदद की है। समितियों में वसूला जाने वाला शुल्क किसानों पर एक प्रकार का अप्रत्यक्ष कर था और इसे बढ़ी हुई कीमत के रूप में उपभोक्ताओं को अदा करना पड़ता था, बीच का कमीशन बिचौलिए खाते थे। 
इसके बाद रॉयल कमिशन ऑफ एग्रीकल्चर 1926, ने एपीएमसी एक्ट की सिफारिश की और 1931 में एक मॉडल बिल लाया गया और कुछ प्रोविंसेस ने इस प्रकार का कानून पास किया। हालांकि स्वतंत्र भारत में ज्यादातर राज्यों ने 1960 के दशक के अंतिम वर्षों से लेकर 1980 के दशक के शुरुआत तक एपीएमसी एक्ट पास किये| इस प्रकार के विनियमित मंडियों की संख्या 1945 में 146 थी जो कि बढ़कर 2001 में 7161 हो गई।
एपीएमसी की स्थापना कृषि उत्पादों के प्रभावी कीमत निर्धारण के लिए उसके विक्रेताओं और क्रेतार्ओं के मध्य उचित व्यापार को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से गठित की गई थी। एपीएमसी खरीदारों, कमीशन एजेंटों और निजी बाजारों को लाइसेंस प्रदान करके; ऐसे किसी भी व्यापार पर बाजार फीस या अन्य प्रभार लगाकर; और व्यापार को सुगम करने के लिए अपने बाजार के अंतर्गत आवश्यक आधारिक संरचना प्रदान करके किसानों के उत्पादों के व्यापार को विनियमित कर सकता है। 
सभी एपीएमसी समितियों में व्यापारी और कमीशन एजेंट किसानों के रूप में कार्य करते हैं कई मंडी समितियों में वर्षों से कोई चुनाव नहीं होता और इस पर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुड़े बड़े किसानों का प्रभुत्व होता है, जबकि रॉयल कमीशन ने इन समितियों में लाइसेंस प्राप्त ब्रोकर को सदस्य के रूप में रखने से मना किया था।
1960 के दशक में मंडी फीस लगभग 1% थी, और जो राजस्व इकट्ठा होता था उसका उपयोग हरित क्रांति के दौरान मंडियों में आधारिक संरचना के निर्माण में उपयोग किया गया, जबकि 2014 15 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार सभी प्रकार के शुल्कों और कटौतीयों का हिस्सा चावल के संदर्भ में आंध्र प्रदेश में 19.5% और पंजाब में 14.5% था; जो कि गेहूं के लिए पंजाब में 14.5% और हरियाणा में 11.5% था। यह पूरी राशि बिचौलियों के पास जाती है जिसका उपयोग वह अपने राजनीतिक प्रभुत्व को बढ़ाने के लिए करते हैं।
1991 से पूर्व अनेक वस्तुओं के उत्पादन में बाजार में प्रतियोगिता नहीं थी लेकिन सुधारों के बाद से लगभग सभी क्षेत्रों में प्रतियोगिता बढ़ी है। उपभोक्ताओं को नए और बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पाद मिले हैं और उनके लिए चुनाव के विकल्पों में काफी वृद्धि हुई है. नये कृषि कानून किसानों को भी यह स्वतंत्रता देते हैं कि वह अपने उत्पाद को कहीं भी बेंच सकते हैं जहां उन्हें बेहतर दाम मिल रहा हो। उनके लिए यह बाध्यता समाप्त हो गयी कि वे सिर्फ अधिकृत मंडियों में ही अपने उत्पाद को बेंचें । फिर यही स्वतंत्रता कृषि आधारित उद्योगों को भी कृषि उत्पादों को खरीदने के संदर्भ में मिलेगी।  
यदि पंजीकृत मंडियां बेहतर सेवा और सुविधा उपलब्ध कराने के नाम पर शुल्क लेती हैं और उसे किसानों को प्रदान करती हैं तो किसान फिर भी मंडियों में ही अपने उत्पाद का विक्रय करेंगे, लेकिन किसान की बाध्यता मंडियों में बेचने की समाप्त होनी चाहिए। ऐसी मांग भी पहले तमाम किसान संगठनों की रही है और अनेकों रिपोर्ट्स में एपीएमसी एक्ट को समाप्त करने की भी सिफारिश की गई है- 1976 में कृषि पर राष्ट्रीय आयोग, 2001 में कृषि विपणन नॉर्मस पर टास्क फोर्स, 2002 में द मिलेनियम स्टडी ऑफ इंडियन फार्मरस, 2002 में ही मुख्यमंत्रियों की स्टैंडिंग कमेटी, 2004 में नेशनल कमीशन फॉर फार्मर्स और 2004 में नेशनल कमीशन ऑफ एग्रीकल्चर मिनिस्टरस इत्यादि। केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्य स्पष्ट रूप से कृषि उत्पाद विपणन समितियां नहीं चाहते हैं। केरल जैसे राज्यों में कभी एपीएमसी रही ही नहीं अनेक राज्यों ने इसे समाप्त कर दिया है। एपीएमसी में सुधार का मुद्दा वर्षों से भाजपा और कांग्रेस दोनों का संयुक्त रूप से रहा है, 2019 में भी कांग्रेस ने इसे अपने चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा बनाया था।
एक महत्वपूर्ण तथ्य भी है कि जिन राज्यों में राज्य का हस्तक्षेप कम है वहां कृषि उत्पादकता सभी फसलों में अधिक है। सबसे कम उत्पादकता भारत में चावल, गेहूं और गन्ना जैसी फसलों में रही है जिनमें कि व्यवसायीकरण सबसे अधिक हुआ है और जिन के पक्ष में  फसल क्षेत्र बढ़ा है। अनेक राज्यों में कई फसलों में कृषि उत्पादकता पंजाब से काफी अधिक है।

कांट्रैक्ट फार्मिंग
कांट्रैक्ट फार्मिंग भी एपीएमसी सुधारो के ही क्रम में है और यह पहले से अनेक राज्यों में मौजूद है, कानून के द्वारा इसे एक औपचारिक जामा पहनाया गया है। नया कानून कंपनियों को किसानों या किसानों के समूह से समझौते के द्वारा कांट्रैक्ट फार्मिंग की इजाजत देता है। इसके लिए दोनों में किसी फसल की विशिष्ट किस्म के उत्पादन और पूर्व निर्धारित कीमत पर, जो कि किसान के लिए लाभदायक हो, पर खरीद की गारंटी का समझौता हो सकता है। इसके अंतर्गत कंपनी किसानों को सभी प्रकार के आगतों और अन्य फसल पूर्व सेवाएं प्रदान करती है जिससे कि बेहतर उत्पादन हो सके।
कांट्रैक्ट फार्मिंग के कई सफल और असफल उदाहरण उपलब्ध हैं। फलों और सब्जियों के संदर्भ में कांट्रैक्ट फार्मिंग काफी सफल रही है राष्ट्रीय दुग्ध विकास निगम और सफल इसके बेहतरीन उदाहरण हैं हालांकि ऐसे भी उदाहरण हैं जहां कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग बहुत सफल नहीं रही। लेकिन अब नियमों के औपचारिक शुरू ले लेने से और अस्पष्ट हो जाने से कांट्रैक्ट फार्मिंग के माध्यम से कृषि ने आधारिक संरचना और तकनीक में निवेश बढ़ने की पूरी संभावना होगी। 
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के एक प्रपत्र के अनुसार चीन में कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने से वाणिज्यिक कृषि  में लगे परिवारों का अनुपात 1995 के 10% से बढ़कर 2005 में 50% हो गया। 1990 और 2000 के दशक में चीन की कृषि खाद्यान्न उन्मुख उत्पादन से उच्च उत्पाद की कृषि वस्तुओं के उत्पादन उन्मुख हो गई। इसका लाभ बड़े किसानों के साथ साथ लघु व सीमांत कृषकों को भी मिला।इस पत्र के अनुसार कांट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए चीन में कृषि क्षेत्र में संरचनात्मक बदलाव आए जबकि भूमि के स्वामित्व में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। 

न्यूनतम समर्थन कीमत या एमएसपी के कानून बनने का प्रभाव 
न्यूनतम समर्थन कीमतों की शुरुआत राज्य की नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य किसानों को इन फ़सलों के उत्पादन को प्रोत्साहित करना था। साथ ही सूखा या खराब सीजन वाले वर्षों में खाद्यान्नों के कमी की भरपाई के लिए सरकार को खाद्य सुरक्षा के तहत पर्याप्त अनाजों का भंडार बनाए रखना था। हरित क्रांति और एमएसपी की व्यवस्था ने ना सिर्फ भारत की खाद्यान्न आयात पर निर्भरता खत्म की, विदेशी मुद्रा की बचत की, खाद्यान्नों के मामले में भारत को आत्मनिर्भर बना दिया बल्कि अब भारत के पास खाद्यान्नों का अतिरिक्त भंडार है और अनेक खाद्यान्नों का वह पर्याप्त मात्रा में निर्यात भी करता है।
परंतु अब हरित क्रांति के समस्त लाभों का दोहन भारत ने 80 के दशक में ही कर लिया था। अब उस के दुष्प्रभावों से निपटने की जरूरत है। दूसरे, भारत में खाद्य उत्पादकता अब अपने उच्चतम स्तर पर बहुत पहले ही पहुंच चुकी है। अब चावल और गेहूं का पर्याप्त भंडार है।  भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में चावल और गेहूं रखने की जगह नहीं है फिर भी उन्हें बाजार से वसूली करना पड़ रहा है. 2006 के बाद से गेहूं और चावल का बफर स्टॉक लगातार बढ़ रहा है और इस समय मानक के अनुसार जितना गेहूं चावल का भंडार होना चाहिए उससे 3 गुना भंडार है, जबकि कोविड-19 के कारण सरकार खाद्यान्नों का मुफ्त में अतिरिक्त वितरण कर रही है। वर्तमान बफर स्टॉक का मूल्य लगभग दो लाख करोड़ रुपए है।
न्यूनतम समर्थन कीमत की व्यवस्था से लाभ उठाने वाले किसानों की संख्या बहुत कम है, देश के कुल किसानों का मात्र 6% ही। इसमें भी ज्यादातर बड़ी जोतों वाले किसान हैं और पंजाब और हरियाणा के किसान हैं। एनएसएस के अनुसार सिर्फ 25% कृषक परिवार ही एपीएमसी मंडीओं में अपने उत्पादों को बेचते हैं जबकि पंजाब और हरियाणा के 80 से 90% किसान न्यूनतम समर्थन कीमतों पर अपने उत्पादों को एपीएमसी मंडियों में बेचते हैं।
एमएसपी का उद्देश्य किसानों के लाभ को सुनिश्चित करने के साथ-साथ खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाना भी था।  परंतु अब खाद्यान्नों का उत्पादन जरूरत से ज्यादा हो रहा है तथा गैर खाद्यान्न फसलों और बागवानी फसलों के उत्पादन को बढ़ाने की जरूरत है। यह मांग और पर्यावरण दोनों को देखते हुए काफी महत्वपूर्ण है। एमएसपी की गारंटी देने से पूरा फसल प्रति चक्र बिगड़ सकता है जोकि कृषि उत्पादन में असंतुलन के साथ-साथ पारिस्थितिकी असंतुलन को भी बढ़ा सकता है। इससे अंतरराज्यीय, अंतरफसली और अंतरवैयक्तिक विषमताओं में भारी वृद्धि होगी, जो कि हरित क्रांति के दौर में पहले से ही काफी बड़ी हुई है। इससे इन राज्यों में कृषि विविधीकरण की योजना को भी धक्का लगेगा और यह पूरी तरह से असफल हो सकता है।
पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में चावल का उपयोग बेहद कम है और कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार यहां का जलवायु क्षेत्र चावल की खेती के लिए बहुत उपयुक्त नहीं है लेकिन पिछले कुछ दशकों में एमएसपी के तंत्र से होने वाले लाभ के कारण चावल की खेती बढ़ी और संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हुआ. यह क्षेत्र इस समय जल दोहन की दृष्टि से डार्क जोन  में चला गया है। देश के कुल कृषि क्षेत्र का 1.5 % हिस्सा ही पंजाब में है, जबकि देश के कुल कीटनाशकों का 18 % पंजाब की खेती में उपयोग होता है। पंजाब का मालवा क्षेत्र देश के कुल भूभाग का 0.5 % है, जबकि यह पूरे देश के कीटनाशकों का 10 % उपयोग में लाता है। खेतों में रसायनों के प्रयोग और अत्यधिक भूमिगत जल के दोहन के कारण वहां भयंकर बीमारियां फैल रही हैं। इससे वहां दूध भी प्रदूषित हो गया है। पंजाब में भूमिगत जल स्तर खतरे के निशान से भी नीचे चला गया है। सेंट्रल ग्राउंड्स वाटर बोर्ड के अनुसार पंजाब के 12 ब्लॉक भूमिगत जल के डार्कजोन में आ गए हैं। डार्क जोन में 450 फीट पर पानी मिलता है।
हाल के दशकों में उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति बढ़ी है और पहले की अपेक्षा फलों, सब्जियों, दुग्ध उत्पाद, पोल्ट्री जैसे उत्पादों की मांग भी बढ़ी है। इन उत्पादों के लिए एमएसपी निर्धारित नहीं है और इनका ज्यादातर उत्पादन और व्यापार लघु सीमांत कृषक करता है। एमएसपी की गारंटी से गेहूं और चावल के ही उत्पादन के प्रति रुझान अधिक बढ़ेगा इसलिए दालों और तिलहन के उत्पादन पर भी इसका नकारात्मक भाव पड़ सकता है जबकि अभी भी इनका उत्पादन मांग के अपेक्षा कम है और बड़े पैमाने पर इनका आयात करना पड़ता है। पिछले कुछ दशकों में सरकारी प्रयासों के चलते फसलों के उत्पादन में वृद्धि हुई है लेकिन एमएसपी के गारंटी से यह प्रयास बेमानी हो सकते हैं।
किसान कोई एक समांग समूह नहीं कहा जा सकता क्योंकि बड़े और छोटे किसानों की प्रकृति और स्थिति में काफी अंतर है। अधिकांश लघु एवं सीमांत किसान अपने परिवार की आजीविका के लिए मजदूरी का कार्य करते हैं बहुत सारे भूमिहीन कृषक हैं, जो की भूमि का लगान अदा करके खेती करते हैं। ऐसे किसानों को न्यूनतम समर्थन कीमतों का लाभ नहीं मिल पाता है। इन सुधारों के साथ-साथ सरकार को किसानों को गेहूं और चावल के अतिरिक्त दूसरी फसलें उगाने और कृषि के विविधीकरण के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करना होगा।
सुधार जरूरी क्यों ?किसानों की वर्षों से मांग थी कि एपीएमसी एक्ट में संशोधन किया जाए और उन्हें आढ़तियों या बिचौलियों की शोषण से बचाया जाए। अब वही किसान और किसान संगठन इन कानूनों के विरोध में आंदोलनरत हैं। हां व्यापारियों का अप्रसन्न होना और आंदोलन करना समझ में आता है। सरकारी खरीद में 94% हिस्सा पंजाब और हरियाणा के किसानों का होने से इन किसानों के एक निश्चित आय के प्रति आश्वासन जरूर रहता है परंतु इस वसूली के तंत्र में सरकारी अधिकारियों से लेकर बिचौलियों तक मंडियों में भ्रष्टाचार का एक पूरा तंत्र चलता रहता है और यही तंत्र भारत के इन सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में कृषि सुधारों को रोकने और यथास्थिति वाद का समर्थक है। परंतु पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को यह समझ लेना चाहिए कि असीमित वसूली का युग समाप्त होने की शुरुआत हो चुकी है और इस वास्तविकता को देर सवेर स्वीकार करना ही होगा।
कृषि पूरी तरह से निजी हाथों में रही है। परंतु इसमें नई तकनीकी के प्रयोग और नए सुधारों को शुरू करने के लिए निजी उद्यमियों की सहभागिता को बढ़ाना भी अत्यावश्यक है। क्योंकि सभी फसलों को न्यूनतम समर्थन कीमत तंत्र अंतर्गत लाना, उनकी वसूली और शीत गृहों के निर्माण की सरकार से आशा करना उचित नहीं है। सरकार की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यह होनी चाहिए कि किसान या उपभोक्ता किसी भी प्रकार से शोषण का शिकार ना हो और सभी पक्ष नियमों, कानूनों के पालन को सुनिश्चित करें,  व्यापार व्यवहार स्पष्ट और उचित हों।
नए कानूनों से निजी क्षेत्र के प्रवेश से मंडियों की संपूर्ण कार्य प्रणाली में सुधार करना जरुरी हो जायेगा और उनकी प्रतियोगिता इनसे बढ़ेगी। ई-कॉमर्स के विस्तार से भी किसानों को फायदा होगा और कृषि उत्पादों के खेत से ही वसूली का तंत्र और आधारिक संरचना के विकास में काफी मदद मिलेगी। भारत में फसलोंपरांत नुकसान लगभग 40% वार्षिक है, इस नुकसान को बचाने के लिए पूर्ति श्रृंखला में बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है। गोदाम, शीतगृहों ,चलित शीतगृह इत्यादि की पूरी श्रृंखला के निर्माण की आवश्यकता है, जो कि बिना निजी क्षेत्र के निवेश के संभव नहीं है। नए तरह के कुछ बाजारों के सृजन से नई तरह के कुछ उत्पादों की मांग होगी और उस अनुरूप किसान उत्पादन करने के लिए प्रेरित होंगे। 86% छोटे व मझोले किसानों के लिए फसलोंपरांत होने वाले नुकसान और फसलों की बर्बादी के जोखिम को कम करने के लिए उनके उत्पादों की मांग और कीमतों की स्पष्टता दोनों आवश्यक है। यह कृषि क्षेत्र में नए सुधारों और आधुनिक तकनीक के प्रयोग से ही संभव है।
इन सुधारों से संपोषित विकास को भी बढ़ावा मिलेगा जो कि इस समय पूरे विश्व में आर्थिक संवृद्धि और विकास के केंद्र में है। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और सततता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि कृषि के विविधीकरण को बढ़ावा दिया जाए। बड़े पैमाने पर बागवानी को प्रोत्साहित करने, मृदा के संरक्षण और ड्रिप सिंचाई तकनीकी को बढ़ावा देने की आवश्यकता है और इसके लिए राज्य सरकारों को किसानों को आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करानी होगी I हरियाणा ने चावल की जगह अन्य फसलों की बुआई पर प्रति एकड़ ₹7000 की सहायता देना शुरू किया है ऐसी ही योजनाएं पंजाब को भी चलाने की सख्त आवश्यकता है।
जब प्रधानमंत्री किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखकर आगे बढ़ते हैं तो उसका अर्थ सिर्फ एमएसपी के जरिए किसानों की आय दुगनी करना नहीं है, यह हो भी नहीं सकता। क्योंकि किसानों का बहुत बड़ा तबका एमएसपी से बिल्कुल अछूता है।  एक तो एमएसपी को लेकर पंजाब और हरियाणा को छोड़कर अधिकांश किसानों में, विशेषकर छोटे और मझोले किसानों में, कोई जागरूकता नहीं है । दूसरे छोटे किसानों द्वारा खाद्यान्न का उत्पादन उनकी अपनी उपभोग जरूरतों से अधिक नहीं होता, उनके पास विक्रय योग्य खाद्यान्न उत्पन्न ही नहीं होता है की उसे बाजार में बेचकर लाभ कमा सकें।  
ऐसे में किसानों की आय में वृद्धि के लिए कृषि आधारित गतिविधियों जैसे डेरी, बागवानी, मुर्गी पालन, मछली पालन, फूलों की खेती इत्यादि आवश्यक है, साथ ही कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और मूल्य बढ़ाव की आवश्यकता है। इसके लिए सबसे प्रमुख बाधा उचित मार्गदर्शन और तकनीकी सहयोग की है, साथ ही इन उत्पादों के विपणन की है। नये कृषि कानून उन सभी समस्याओं को अच्छी तरह से एड्रेस करने की क्षमता रखते हैं। हाँलाकि एमएसपी प्रणाली से अत्यधिक बाजार आधारित प्रणाली की ओर जाने के मध्य का जो संक्रमण काल है वह निश्चित ही काफी चुनौती भरा होगा।
यदि इन वर्तमान कानूनों की कुछ कमियों को सुधार लिया जाए, और जिसके लिए सरकार तैयार भी है, तो वर्तमान आर्थिक सुधारों के दौर में कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश बढ़ाने और उसे समय के अनुरूप आधुनिक बनाने की दिशा में यह बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकते है। इन कानूनों को पूरी तरह से हटा लेने की मांग ना सिर्फ राजनीति से प्रेरित है बल्कि कमीशन एजेंटों (राज्य सरकार -पंजाब) की आय प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होने के कारण उन्हीं के द्वारा संचालित है और इसमें कुछ राज्य सरकारों का भी हाथ है। किसानों को यथास्थितिवाद से निकलकर सोचना होगा क्योंकि यह कानून अंततः उनके लिए लाभदायक सिद्ध होंगे और उन्हें कृषि मूल्य श्रृंखला के बिचौलियों की जकड़ से भी मुक्ति दिलाएंगे।
पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों के न्यूनतम समर्थन कीमतों और एपीएमसी को लेकर चिंता वाजिब है क्योंकि निश्चित ही उनके हित प्रभावित होंगे। परंतु सरकार के बार-बार आश्वासन दिए जाने के बावजूद किसानों का तैयार ना होना कुछ लोगों के निहित स्वार्थों को दिखाता है। क्योंकि किसान अंततः नए बदलावों को धीरे-धीरे स्वीकार कर ही लेता है।

किसानों का हित सर्वोपरि-
पूरे देश में सभी फसलों का 10% से भी कम सरकारी खरीद एजेंसियों को न्यूनतम समर्थन कीमत पर बेचा जाता है। स्पष्ट है कि अधिकतर किसान निजी व्यापारियों को अपने उत्पाद बेचते हैं, इसलिए यह कहना कि न्यूनतम समर्थन कीमत प्रणाली समाप्त हो जाने से कृषि क्षेत्र में घोर संकट आ जाएगा, समझ में आने वाली बात नहीं है। 2012-13 में एनएसएसओ एक सर्वेक्षण से यह पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर ज्यादातर कृषि उत्पाद स्थानीय निजी व्यापारियों को बेचे गए, उसके बाद मंडियों को, जबकि सहकारी और सरकारी एजेंसीज का हिस्सा काफी कम था।
एमएसपी पर सरकारी एजेंसियों को बेचने में लाभ मुख्यतः बड़े किसान को ही मिलता है। आड़तीयों, बड़े किसानों तथा सरकारी एजेंसियों की सांठगांठ से उनके उत्पाद जल्दी बिक जाते हैं जबकि छोटे किसानों को इंतजार कराया जाता है और मानकों की आड़ में उनके उत्पाद की खरीद भी सही ढंग से नहीं की जाती है। जैसे धान के संदर्भ में नमी के आधार पर या उसकी गुणवत्ता के आधार पर छोटे किसानों को परेशान किया जाता है और उनके उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा अलग कर दिया जाता है, जिसे बाद में आढ़ती स्वयं सरकारी एजेंसियों को बेच देते हैं।
वस्तुतः महत्वपूर्ण एपीएमसी या निजी मंडियां नहीं है, महत्वपूर्ण है किसानों के लिए या कृषि उत्पादों के लिए अधिक से अधिक और नजदीक बाजारों की उपस्थिति, जिससे कि उन्हें विपणन संबंधी परेशानियों से न जूझना पड़े। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि न्यूनतम समर्थन कीमत को भले ही कानूनी जामा ना पहनाया जाए परंतु प्रत्येक स्थिति में यह सुनिश्चित होना आवश्यक है कि किसानों को प्रत्येक उत्पाद की लागत का डेढ़ से दोगुना विक्रय राशि प्राप्त हो। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है निजी संगठित क्षेत्र के बड़े औद्योगिक घरानों के कृषि क्षेत्र में प्रवेश करने पर उनके द्वारा किसानों के शोषण को बचाना और यह सुनिश्चित करना कि वे अनुचित व्यापार व्यवहार न करें। चौथी महत्वपूर्ण बात है कि कृषि क्षेत्र में सभी फसलों के लिए सहकारी मॉडल को अपनाने पर भी विचार किया जाए क्योंकि अमूल कोऑपरेटिव मॉडल का सफल उदाहरण सबके सामने है।
नए कानूनों को लेकर किसानों के मन में शंकाएं होना बहुत स्वाभाविक है क्योंकि दशकों से चली आ रही है एपीएमसी प्रणाली के समाप्त होने पर एक नया तंत्र विकसित होने में समय लगेगा और इस संक्रमण काल में किसानों के हितों का ध्यान रखना बेहद महत्वपूर्ण होगा।
किसानों की समझौता शक्ति को बेहतर करने के लिए उन्हें संगठित होकर औद्योगिक घरानों से मुकाबला करना होगा। इसके लिए केंद्र ने किसान उत्पादक संगठन या एफपीओ के गठन पर भी ध्यान दिया है । यह समूह  किसानों  द्वारा निर्मित एक संगठन होगा जो कि अपने उत्पादों को बेचने के लिए  बनाया जाएगा। इससे किसानों की  सौदेबाजी की शक्ति में  वृद्धि होगी और  कृषि बाजार अत्यधिक पारदर्शी होगा।अगले एक दो वर्षों में 10,000 एफपीओ के गठन का लक्ष्य है इनमें से 3500 का गठन अंतिम चरण में है। 2025 तक कम से कम 30000 ऐसे एफपीओ का गठन कृषि क्षेत्र में हो सकता है।
यह तीनों कृषि कानून किसानों के काफी समय से की जा रही मांग और कई समितियों और विशेषज्ञों की सिफारिशों को पूरा करते हैं। यह कानून किसानों को अपने उत्पादों को एपीएमसी मंडियों या मात्र सरकार की मंडियों में अपने उत्पादों को बेचने की बाध्यता से मुक्त करते हैं और अंतरराज्यीय व्यापार को भी बाधारहित बनाने में मदद करते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक किसानों का सिर्फ उत्पादन पर नियंत्रण था, उसके अपने उत्पाद की बिक्री और कीमत पर नियंत्रण नहीं था, अब वह अपनी मर्जी के हिसाब से अपने उत्पादों की बिक्री कर सकता है।
2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार भारत में कुल 146 मिलियन कृषि जोतें थीं (जोंतों की संख्या में 4 वर्षों में और वृद्धि हुई होगी)। इनमें से 86% जोते लघु व सीमांत हैं अर्थात जिनका आकार 2 हेक्टेयर से कम है, जबकि मात्र 0.6% जोतें बड़ी तथा 10 हेक्टेयर से अधिक आकार की हैं। फसल क्षेत्र के पदों में सबसे ज्यादा जोते राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में है जबकि जोतों की संख्या की दृष्टि से सबसे अधिक जोतें उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में हैं। किसानों के हितों की जब हम बात करते हैं तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के किसानों को भी हमें ध्यान रखना होगा, जहां की जोतों की संख्या सर्वाधिक है।वस्तुतः इन राज्यों के कृषि के पिछड़े क्षेत्रों और पिछड़े किसानों को इन कानूनों से लाभ मिलने की संभावना है। 
न्यूनतम समर्थन कीमत को कानूनी रूप से अनिवार्य करना असंभव सी मांग है। सरकार द्वारा गेहूं धान के सीजन में लगभग एक महीने तक धान और गेहूं की न्यूनतम समर्थन कीमतों पर खरीदारी की जाती है। परंतु यह समझने की जरूरत है कि सरकार का काम चीजों की खरीद और बिक्री करना नहीं है और यह बात कृषि वस्तुओं के संदर्भ में भी पूरी तरह सत्य है। सरकार का कार्य खरीद-फरोख्त को विनियमित करना, उसे नियमानुसार सुनिश्चित करना, अनुचित व्यापार को रोकना और उचित प्रतियोगी वातावरण तैयार करना है।
कृषि विविधीकरण एवं प्रसंसकरण बेहद जरुरी
आय बढ़ने के साथ-साथ खाद्यान्नों की मांग नहीं बढ़ती है।हां खाद्यान्नों के प्रसंस्करण के बाद यदि उसमें वैल्यू एडिशन कर दिया जाए तो ऐसे उच्च मूल्य वाले खाद्यान्न उत्पादों की मांग बढ़ती है।देश में इस ओर बहुत बाद में ध्यान दिया गया। यह आश्चर्यजनक है कि अभी भी 10% से कम कृषि वस्तुओं का प्रसंस्करण होता है। किसानों की आय बढ़ाने के लिए खाद्यान्नों का प्रसंस्करण बहुत महत्वपूर्ण है।
हरित क्रांति से पहले पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खेती विविधिकृत थी और इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी संतुलन के अनुरूप थी। सरकारी नीतियों के परिणाम स्वरूप खाद्य सुरक्षा के मद्देनजर इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर मोटे अनाजों और तिलहनओं की कीमत पर गेहूं और चावल की खेती को बढ़ावा मिला। आज इसका दुष्परिणाम कई रूपों में सामने दिखाई देता है- भूमि जल का स्तर क्षेत्र में काफी नीचे चला गया है, मिट्टी की गुणवत्ता काफी गिर गई है, रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के दुष्परिणाम लोगों के स्वास्थ्य पर भी नजर आने लगा है इत्यादि।
गेहूं- चावल चक्र से निकलने में किसानों को निश्चित आय के नुकसान का खतरा नजर आता है इसलिए वे विविध कृत कृषि करने की तरफ अग्रसर होने से कतराते हैं। वैसे इन क्षेत्रों के किसान काफी मेहनती हैं और दीर्घकाल में उनके लिए क्या अच्छा है इस बात को अच्छी तरह समझते हैं, उनकी थोड़ी सी मदद उन्हें कृषि के विविधीकरण के लिए न सिर्फ प्रोत्साहित करेगी बल्कि उनकी आय को भी कई गुना बढ़ा सकती है तथा इस पूरे क्षेत्र का कायाकल्प कर सकती है। पंजाब में सकल फसल क्षेत्र का मात्र 1% फलों के अंतर्गत है जबकि मात्र 2.6% सब्जियों के अंतर्गत पंजाब और हरियाणा में फलों और सब्जियों के उत्पादन में बढ़ोतरी की पर्याप्त संभावनाएं हैं। यदि क्षेत्र में पूर्ति श्रृंखला में वास्तव में निजी निवेश में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी होती है तो पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान उच्च मूल्य के फलों सब्जियों के उत्पादन में पीछे रहने वाले नहीं हैं। 
एक अनुमान के अनुसार भारत में जितनी फल और सब्जियां आवश्यक आधारिक संरचना के अभाव में नष्ट हो जाते हैं उतना पूरे यूरोप का इनका उपभोग है। भारत में कुल उत्पादन का महज 2% प्रसंस्करण हो पाता है और मूल्य बढ़ाव भी मात्र 7% है। जल्दी खराब होने वाले कृषि वस्तुओं में यदि फसलोंपरांत आधारिक संरचना को मजबूत करने के लिए राज्य सरकारें और केंद्र निवेश करते हैं, उन क्षेत्रों में निजी निवेश को बढ़ावा मिलता है तो कृषि के विविधीकरण की प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है। खाद्यान्नों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए सरकारों ने एपीएमसी के गठन से लेकर गोदामों की व्यवस्था तक अनेक व्यवस्थाएं की थी, ऐसे ही प्रयास अब फलों सब्जियों जैसे उच्च मूल्य की कृषि वस्तुओं के लिए भी करना होगा।
पंजाब के किसानों द्वारा मक्के के क्षेत्र में वृद्धि का परिणाम सफल नहीं रहा क्योंकि इसकी न्यूनतम समर्थन कीमत जितनी है इसकी बाजार कीमत काफी कम है। गेहूं और चावल की जगह दालों और तिलहनओ के पक्ष में कृषि के विविधीकरण में किसानों का फायदा काफी कम है। इसलिए जब तक पंजाब और हरियाणा में किसानों को अपने आय के कम होने का आश्वासन नहीं दिखेगा वह किसी नई प्रणाली के पक्ष में आगे नहीं बढ़ेंगे। इसलिए कुछ कृषि विशेषज्ञों का यह भी सुझाव है कि अगले 5 से 10 वर्षों के लिए कृषि के विविधीकरण को बढ़ावा देने के लिए किसानों को प्रत्यक्ष आए समर्थन के रूप में एक सपोर्ट सिस्टम विकसित करने की आवश्यकता है।
एपीएमसी, कृषि व्यापार और वाणिज्य, सहकारी समितियों इत्यादि पर नियंत्रण स्थानीय  ग्रामीण पूंजीपतियों की शक्ति के स्रोत हैं। अर्थ सामंती धनाढ्यओं की स्थानीय राजनीति में भी  अच्छी घुसपैठ रहती है। इसलिए यह किसान आंदोलन सिर्फ मांगों को पूरा करवाने के लिए नहीं है बल्कि शक्ति प्रदर्शन के लिए भी है। और इसका समाधान राजनीतिक तरीके से ही हो सकता है।
कुछ जरूरते  समय के साथ साथ बदल जाती हैं और उसी अनुसार पूरे तंत्र को बदलने की आवश्यकता होती है। किसानों को भी जोखिमरहित कृषि की आदत को बदल कर कृषि क्षेत्र की जरूरत और अर्थव्यवस्था की जरूरत के अनुसार अपने खेती करने के तरीकों को बदलना होगा।
उपसंहार 
किसी भी देश में अर्थव्यवस्था में नए सुधार पूरी सहमति से नहीं लाए जाते हैं। 1991 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार ने जब आर्थिक सुधारों को शुरू किया गया था तो उसका भी व्यापक विरोध हुआ था। वह सुधार एक गंभीर आर्थिक संकट के परिणाम स्वरुप शुरू किए गए थे, सबकी सहमति से नहीं। कृषि क्षेत्र में भी ऐसे सुधारों की जरूरत दशकों से महसूस की जा रही है। लगभग दो दशक पहले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दूसरी हरित क्रांति की आवश्यकता पर काफी जोर दिया था। वस्तुतः हरित क्रांति के दुष्प्रभाव और उसके कारण कृषि क्षेत्र में असमान विकास 1980 के दशक में ही स्पष्ट हो गए थे। लेकिन उसके लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए।
1991 में भी सबसे ज्यादा विरोध औद्योगिक और व्यवसायिक घरानों द्वारा किया गया। वे लाइसेंस परमिट राज में एक संरक्षित वातावरण के अंतर्गत कार्य करने की आदी हो गए थे और उससे बाहर नहीं निकलना चाह रहे थे। जबकि उन आर्थिक सुधारों का सबसे अधिक लाभ उन्हीं को मिलने वाला था इसके बावजूद वे विदेशी प्रतियोगिता से डरे हुए थे और अपने भविष्य की अनिश्चितता को लेकर सहमे हुए थे। आज यही हाल पंजाब और हरियाणा कि किसानों का है  क्योंकि अंतत इन कानूनों से सबसे अधिक फायदा आगे चलकर सबसे ज्यादा उन्हीं क्षेत्रो और किसानों का होने वाला है। किसानों को इन सुधारों के महत्व को अच्छी तरह समझाने की आवश्यकता है क्योंकि इन सुधारों में यह क्षमता है कि वह कृषि को एक लाभदायक प्रयास में परिवर्तित कर सकें और निजी निवेश तथा नवप्रवर्तन को कृषि क्षेत्र में प्रोत्साहित कर सकें। जिसका फायदा अंततः किसानों और पूरे ग्रामीण क्षेत्र को मिलेगा।
कृषि क्षेत्र अति विनियमन का शिकार है, कीमतें नियंत्रित, निर्यात और व्यापार प्रतिबंधित है, जो कि कृषि क्षेत्र के विकास को रुके हुए हैं। नए कृषि कानून 1991 के आर्थिक सुधारों की तरह कृषि क्षेत्र में विकास के नए रास्ते खोल सकते हैं, किसानों को बिचौलियोंऔर बड़े किसानों के चंगुल से मुक्त कर सकते हैं और कृषि और ग्रामीण क्षेत्र की आय को बढ़ाने की प्रक्रिया में बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। ये कानून कृषि उत्पादों को बेचने के लिए एपीएमसी मंडीयों के एकाधिकार पर रोक लगाते हैं और किसानों को किसी को भी, कहीं भी अपने उत्पादों को सीधे बेचने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। यह कानून एक राष्ट्र एक बाजार के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं।
आपूर्ति श्रृंखला संबंधित आधारिक संरचना में निवेश को बढ़ावा देकर के कृषि बाजारों को बड़ा और बेहतर किया जा सकता है और कुछ उत्पादों की बेहतर कीमतें प्राप्त की जा सकती है। कृषि संबंधी नए सुधार इस बात की संभावना को बढ़ाते हैं कि कृषि क्षेत्र में इस दिशा में नए सुधार और नवप्रवर्तन होंगे जिससे की किसान और उपभोक्ता दोनों को फायदा होगा।
वस्तुतः नए कृषि कानूनों के माध्यम से सरकार द्वारा किए गए सुधार कृषि को शेष अर्थव्यवस्था के पूंजीवादी विकास के साथ एकत्रित करने का एक साहसिक प्रयास है। इसलिए इसे किसी अल्पकालिक मानक के आधार पर मूल्यांकन करने की बजाय इसके दीर्घकालिक प्रभावों के आधार पर इसका मूल्यांकन करना होगा। यह आंदोलन सरकार के लिए एक सबक भी है कि वह भविष्य में गन्ना और रासायनिक खादों के क्षेत्र में किसी भी सुधार को अपनाने से पूर्व व्यापक परामर्श के द्वारा एक न्यूनतम सहमति बनाकर उसकी शुरुआत करे।

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