राजस्थान के श्रीगंगानगर में पेट्रोल की कीमत 17 फरवरी को बढ़कर 100 रूपये पार कर गई। यह लगातार दसवां दिन था जब पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि हो रही थी। कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने पर हमारे देश में अन्य वस्तुओं की कीमतों पर भी इसका असर पड़ना निश्चित है। पिछले 10 महीने में पेट्रोल की कीमत में 17 रूपये से अधिक की वृद्धि हो चुकी है। हालांकि यह प्रीमियम पेट्रोल की कीमत है जो कि सबसे अधिक बढ़ी है, क्योंकि इस पर कर अधिक है। अलग-अलग राज्यों में पेट्रोलियम पदार्थों पर कर की दरें अलग-अलग हैं। इसलिए पेट्रोल और डीजल की कीमतों में अंतर होता है। भारत में राजस्थान पेट्रोल पर सबसे अधिक वैट वसूलता है और उसके बाद मध्यप्रदेश का नंबर है इसलिए इन दोनों ही राज्यों में पेट्रोल और डीजल की कीमतें दूसरे राज्यों से ज्यादा हैं। परिवहन लागत में अंतर के कारण भी अलग-अलग स्थानों पर कीमतों में थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल निर्यातक देशों द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन में कमी और कोरना संकट से उभर रही अर्थव्यवस्थाओं में कच्चे तेल की मांग में वृद्धि के कारण भारत में भी पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि होना स्वाभाविक था। यह वृद्धि एक ऐसे समय शुरू हुई जब की अर्थव्यवस्था में मंदी से निकल कर तेजी की ओर बढ़ने के संकेत मिलने लगे थे और मुद्रास्फीति भी काफी निचले स्तर पर थी। धीरे धीरे सरकार के राजस्व में भी कोविड संकट से पहले वाली स्थिति बन गई थी।
कच्चे तेल की बढती अन्तर्राष्ट्रीय और घरलू कीमतें
अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में ब्रेंट क्रुड आयल यानि ब्रेंट कच्चे तेल की कीमत पिछले लगभग 14 महीनों में अपने उच्चतम स्तर पर हैं। इस साल कच्चे तेल की कीमतों में लगभग 36 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। एक जनवरी 2021 को कच्चे तेल की कीमत 51 डॉलर प्रति बैरल थी, मार्च में यह 63 से 70 डॉलर प्रति बैरल से बीच रही है। 11 मार्च 2021 को कीमत 69.63 डॉलर प्रति बैरल थी। कोरोना से उबर रही दुनिया में आर्थिक गतिविधियां पिछले कुछ महीनों में बढ़ी हैं, जिससे पेट्रोल डीजल की मांग में वृद्धि हुई है।
घरेलू बाजार में पेट्रोल-डीजल की कीमत लगातार बढ़ने का कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ रहे हैं और सरकार इस पर एक्साइज ड्यूटी कम नहीं कर रही है। इसके अलावा राज्य सरकारें भी पेट्रोल-डीजल पर वैट भी लगाती हैं। इसके चलते कीमतें बढ़ रही हैं। पेट्रोल की कीमत में लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा कर का होता है। 37 प्रतिशत केंद्रीय उत्पाद शुल्क का और 23 प्रतिशत हिस्सा राज्य मूल्य वर्धित कर या VAT वैट का हिस्सा होता है अर्थात कुल कीमत में मात्र 40 प्रतिशत ही पेट्रोल की वास्तविक कीमत है। दिल्ली में एक लीटर पेट्रोल पर 32.90 रुपये और डीजल पर 31.80 रुपये एक्साइज ड्यूटी लगती है।
वर्ष 2014 में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 9.48 रुपये प्रति लीटर था और डीजल पर 3.56 रुपये प्रति लीटर। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 तक केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क में नौ बार बढ़ोत्तरी की। सिर्फ 15 सप्ताह में पेट्रोल पर शुल्क 11.77 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 13.47 रुपये प्रति लीटर बढ़ा। इससे 2016-17 में सरकार को 2,42,000 करोड़ रुपये की प्राप्ति हुई, जो 2014-15 में 99,000 करोड़ रुपये थी। बाद में अक्तूबर 2017 में यह दो रुपये प्रति लीटर कम की गई। इसके एक साल बाद उत्पाद शुल्क में फिर से 1.50 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि की गयी। जुलाई 2019 में शुल्क एक बार फिर दो रुपये प्रति लीटर बढ़ा दिया गया। केंद्र सरकार ने 16 मार्च 2020 और 5 मई 2020 को दो किस्तों में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 13 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 16 रुपये प्रति लीटर बढ़ाया। हालांकि इस बढ़ोतरी से तेल की कीमत प्रभावित नहीं हुई थी क्योंकि तब कोविड19 के कारण कई देशों में लगे लॉकडाउन से कच्चे तेल की मांग बेहद कम हो गई थी और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में भारी गिरावट आई थी। इस बीच कुछ राज्य सरकारों ने भी कोरोना काल में घटते राजस्व की भरपाई के लिए वैट की दरें बढ़ाईं। दिल्ली, महाराष्ट्र और कर्नाटक सहित कई अन्य राज्यों ने वैट में बढ़ोतरी की थी।
पेट्रोल और डीजल पर प्रति ईकाई के आधार पर उत्पाद शुल्क लगाया जाता है। 2018, 2019 और 2020 के शुरुआती महीनों में यह उत्पाद शुल्क 18 से 20 रूपये के बीच में था। कोरोना संकट की शुरुआत के समय भी यह लगभग 20 रूपया था। लेकिन कोरोना संकट के कारण जब पूरी विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी की स्थिति से तेल की कीमतों में भयानक गिरावट आई और तेल की कीमतें लगभग 40 डालर प्रति बैरल तक नीचे गिर गई थी तो उत्पाद शुल्क बढ़ाकर लगभग 33 रूपये तक कर दिया गया। अब जबकि तेल कीमतें पुनः बढ़कर कोरोना के पहले वाले स्तर पर पहुंच चुकी हैं, उत्पाद शुल्क अभी भी लगभग 35 रूपये ही है और सरकार अपने राजकोषीय घाटे को पूरा करने का जतन कर रही है।
पेट्रोल की कीमत का गणित
यदि हम पेट्रोल और डीजल की अंतिम कीमतों की बात करें, जिस पर उपभोक्ता क्रय करता है, तो इसके चार घटक हैं। इसका पहला हिस्सा तेल की लागत है जो कि डीलर को देनी पड़ती है, इसमें कच्चे तेल की कीमत और इसके प्रसंस्करण में आए खर्चे सम्मिलित हैं; दूसरा घटक है उत्पाद शुल्क, जो कि केंद्र सरकार द्वारा प्रति इकाई लगाया जाता है; तीसरा घटक है पेट्रोल पंप के मालिक या डीलर का कमीशन और चौथा है राज्य द्वारा लगाया गया वैट। चूँकि पेट्रोल और डीजल जीएसटी के अंतर्गत नहीं आते हैं इसलिए वैट की दरें अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं और इसीलिए पेट्रोल और डीजल की कीमतों में राज्यवार कीमती भी अलग-अलग परिवर्तित होती रहती हैं। रिफायनिंग की लागत अर्थात कच्चे तेल के प्रसंस्करण की लागत पेट्रोल और डीजल के लिए डीलर की लागत में जुड़ी होती है। साथ ही यह वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमत के अतिरिक्त विनिमय दर पर भी निर्भर करती है, और दोनों ही बाह्य कारक है जिस पर सरकार का कोई वश नहीं है।
नवंबर 2017 में जब कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत लगभग 61 डालर प्रति बैरल थी तो पेट्रोल की लागत डीलर के लिए लगभग 31.50 रुपये प्रति लीटर थी। नंबर 2018 में जब कच्चे तेल की कीमत लगभग 65.5 डालर प्रति बैरल हो गई तो यह लागत बढ़कर लगभग ₹41 हो गई। जब पुनः नवंबर 2019 में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत लगभग 62 डालर प्रति बैरल हो गई तो डीलर की लागत घटकर ₹34 से कम हो गई। इस अवधि में पैट्रोल की अंतिम कीमतें भीनवम्बर 2017 के लगभग ₹69 से बढ़कर 2018 में ₹79 और फिर घटकर नवम्बर 2019 में लगभग ₹71.50 हो गयी। जून 2019 के बाद अंतरराष्ट्रीय तेल की कीमतों में दबाव नीचे की ओर ही रहा और कोविड-19 के कारण आर्थिक गतिविधियों में आई गिरावट से यह गिरकर जून 2020 में लगभग $40 प्रति बैरल तक पहुंच गया।
फरवरी 2021 में जब कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगभग 61 डालर प्रति बैरल थी तो पेट्रोल की डीलर के लिए लागत लगभग ₹32 थी जोकि नवंबर 2017 की कीमतों के समान है लेकिन पेट्रोल की अंतिम कीमत में नवंबर 2017 की अपेक्षा आज कीमत ₹20 अधिक है, इस दौरान पेट्रोल की कीमत ₹72 से बढ़कर ₹90 हो गयी। इन कीमतों के बढ़ने का कारण केंद्र सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क और राज्यों द्वारा वैट में की गई वृद्धि है। लॉकडाउन के बाद जून 2020 में उत्पाद शुल्क की दर में लगभग 65% की वृद्धि की गई। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों के लगातार निचले स्तरों को छूने के बाद भी उसका लाभ उपभोक्ताओं को नहीं मिला। लॉक डाउन से पहले की कीमत की अपेक्षा जून 2020 में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क ₹13 अधिक था।
भारत में सरकारों की नीति रही है कि जब भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में कमी आई है तो बहुत कम लोगों पर सरकार ने उसका लाभ उपभोक्ताओं तक पहुंचाया है। सरकारों ने अपने राजस्व संग्रहण को बढ़ाना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा। राज्य सरकारों ने वैट की दरों में बहुत परिवर्तन नहीं किया लेकिन कच्चे तेल की कीमतों के बढ़ने के कारण उनके कर राजस्व में वृद्धि हुई, यह वृद्धि 2017 से 2021 के बीच में 25 प्रतिशत से अधिक है। 2017 से 2021 के बीच में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 9.48 रुपया प्रति लीटर से बढ़कर 32.9 8 रुपए प्रति लीटर हो गया अर्थात इस दौरान इसमें 348 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
बढती कीमतें अर्थव्यवस्था के लिए खतरा!
बढ़ती हुई कीमतें एक छुपे हुए कर की तरह हैं जो कि सबसे अधिक चोट उसे पहुंचाती हैं जिसकी इस चोट को सहने की क्षमता सबसे कम है। कॉविड 19 के संकट से अभी अर्थव्यवस्था और लोग निपटने की जुगत में ही लगे थी कि पेट्रोल और डीजल की बढ़ती हुई कीमतों ने एक बहुत बड़े तबके के लिए कोढ़ में खाज का काम किया है। पेट्रोल और डीजल का प्रत्यक्ष उपयोग भले ही देश का गरीब तबका नहीं करता हो लेकिन रोजमर्रा के कामों से लेकर उनके उपभोग की सभी वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें पेट्रोल और डीजल की कीमतों के बढ़ने से बढ़ने लगती हैं। और ऐसे में जीवन को पालने का संघर्ष और बढ़ जाता है। बढ़ती कीमतों के कारण अर्थव्यवस्था की मंदी से उत्पन्न बेरोजगारी और कम आय का दंश और बढ़ गया है।
पेट्रोलियम पदार्थों और विशेष रूप से डीजल और पेट्रोल की कीमतों के बढ़ने का असर पूरी अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र पर पड़ता है और अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी दबाव बढ़ जाता है। तेल की बढ़ती कीमतें अर्थव्यवस्था पर कैस्केडिंग प्रभाव या व्यापक प्रभाव डालती हैं और अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं। इससे अन्य सभी वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में वृद्धि होती है। इसलिए इस बात पर सरकारों को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि बढ़ती हुई कीमतों को किस प्रकार से रोका जाए। यदि केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क में कमी करती है तो इसका असर राज्यों के वैट वसूली पर भी पड़ेगा।
लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार कोविड-19 के संकट से अभी पूरी तरह से ना निपट पाने की स्थिति में अपने राजस्व के संग्रहण में पेट्रोल और डीजल पर लगे उत्पाद शुल्क को काफी महत्वपूर्ण मान रही है परंतु पेट्रोल और डीजल की कीमतों को बाजार के भरोसे छोड़ने के बाद सरकार का दायित्व भी है कि वह इसे जीएसटी के दायरे में लाती और इस प्रकार इनकी कीमतों का विवेकीकरण करती।
कैसे कम हो कीमतें!
2020 में फरवरी के बाद से कोरोना संकट के कारण अर्थव्यवस्था में सभी आर्थिक गतिविधियां लगभग ठप पड़ गई थी और कई महीनों तक सरकार के राजस्व में भारी गिरावट स्वाभाविक थी। पेट्रोल और डीजल की भी खपत में भी तेज आई कमी से सरकार का राजस्व अपने निचले स्तर पर चला गया था। अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने के लिए और अर्थव्यवस्था के सबसे निचले तबके की मदद के लिए भी सरकार को अपना खजाना खोलना था, सरकार ने खोला भी । ऐसे में सरकार के सामने संसाधनों का संकट आना ही था। सरकार की राजस्व उगाही का एक ही सशक्त माध्यम था, पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में वृद्धि। यह उस समय उचित भी था। उस समय चूँकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें लगातार गिर रही थी और अपने न्यूनतम स्तर पर आ गई थी इसलिए इस बढ़ोतरी का असर दिखाई नहीं दिया।
लेकिन अब जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं सरकारों को पेट्रोल और डीजल की कीमतों को कम करने के लिए प्रयास करना आवश्यक है लेकिन राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे की आलोचना करने में व्यस्त हैं केंद्र सरकार राज्यों को वैट कम करने का सलाह दे रही है और उनकी दरों को कम करने के लिए कह रही है क्योंकि वैट राज्यों द्वारा लगाया गया है, मूल्य अनुसार लगाया जाता है और कीमतों के बढ़ने के साथ-साथ कर राजस्व में भी वृद्धि होती जाती है। राज्यों का तर्क है कि केंद्र सरकार को अपने उत्पाद शुल्क में कमी करनी चाहिए क्योंकि वह पहले से ही सेस के माध्यम से राजस्व की उगाही कर रहा है, जिसका बंटवारा वह राज्यों के साथ नहीं करता है। वैसे केंद्र सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ओपेक या तेल उत्पादक देशों से कच्चे तेल की कीमतों को कम करने का अनुरोध कर चुकी है।
मार्च के प्रथम सप्ताह में जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से एक कार्यक्रम के दौरान पूछा गया कि पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती हुई कीमतों को सरकार कब तक नियंत्रित कर पाएगी, तो वित्त मंत्री का जवाब था कि इसके बारे में कुछ नहीं कह सकती, अभी इस पर कुछ भी कहना धर्मसंकट की तरह है। इससे पूर्व धर्मेंद्र प्रधान जी ने कीमतों के बढ़ने का कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती को बताया था, उन्होंने कहा था कि तेल उत्पादक देश अपना लाभ बढ़ाने के लिए ऐसा कर रहे हैं।
केंद्र सरकार भी गंभीर
सऊदी अरब सहित तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक द्वारा तेल के उत्पादन को नहीं बढ़ाने और उत्पादन में कटौती जारी रखने के कारण तेल की कीमतें घटने का नाम नहीं ले रही हैं। ऐसे में कच्चे तेल की कीमत कम करने के लिए भारत सऊदी अरब से तेल के आयात में कमी करने का भी फैसला लिया है। एक रिपोर्ट के अनुसार मई तक भारत सऊदी अरब से तेल आयात को एक चौथाई कम कर सकता है। भारत अब अमेरिका से ज्यादा तेल आयात करेगा, जिसकी कीमतें कुछ कम है। चीन और जापान के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश भारत अपनी कुल आवश्यकता का 80% कच्चा तेल आयात करता है।
दरअसल ओपेक देशों की बैठक से पहले भारत सरकार ने यह अनुरोध किया था कि तेल उत्पादन की कटौती के फैसले पर ओपेक देश विचार करें। परंतु ओपेक देशों ने तेल कटौती जारी रखी। इसलिए भारत सरकार अब मध्य पूर्व के खाड़ी देशों पर कच्चे तेल के आयात पर अपनी निर्भरता को कम करने की रणनीति बना रहा है। भारत के कच्चे तेल के रिफाइनरी की क्षमता 5 मिलियन बैरल प्रतिदिन है इसमें से 60% नियंत्रण सरकारी कंपनियों का है सरकारी तेल कंपनियां लगभग 15 मिलियन बैरल तेल प्रति महीने सऊदी अरब से आयात करती हैं जिसे घटाकर मई तक लगभग 11 मिलियन बैरल करने की योजना है।
अंत में…….
अंतरराष्ट्रीय बाजारों में इसकी कीमतों में उतार-चढ़ाव बना हुआ है। मार्च महीने में अभी तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में 11 प्रतिशत तक का उच्चावचन हुआ है, जबकि भारतीय बाजार में कीमतें स्थिर है। 17 मार्च को 18 दिन हो गए जबकि तेल के दाम स्थिर बने हुए हैं। कई राज्यों में चुनाव को देखते हुए अभी तेल की कीमतें भले ही ना बढ़ रही हो लेकिन चुनाव के बाद यह वृद्धि पुनः देखने को मिलेगी। कोविड-19 के कारण लॉक डाउन के बाद अर्थव्यवस्थाओं की गतिविधियों में बढ़ोतरी से तेल की मांग में वृद्धि हुई है, जबकि ओपेक देशों ने इसके उत्पादन में कमी जारी रखी है इसलिए तेल के दाम आगे भी बढ़ने की संभावना है।
रेल मंत्रालय के पीपीएसी के आंकड़ों के अनुसार जनवरी के बाद फरवरी में भी देश में पेट्रोल और डीजल की खपत में लगातार गिरावट आई और इसका एक बड़ा कारण इनकी कीमतों में हो रही वृद्धि है। फरवरी में इनकी खपत में 5 प्रतिशत की गिरावट आई है। कोरोना संकट के बाद रफ्तार पकड़ रही अर्थव्यवस्था के लिए यह संकेत अच्छे नहीं है
लोगों का ध्यान पेट्रोल और डीजल की कीमतों के बढ़ने पर है जबकि खाद्य तेलों के दाम में भी जबरदस्त बढ़ोतरी हो रही है। एक वर्ष के भीतर खाद्य तेलों के दाम बढ़कर लगभग दोगुने हो गए हैं। पिछले मार्च में खाद्य तेल के दाम 80 से ₹90 प्रति किलोग्राम था जो कि बढ़कर अब लगभग 135 से ₹140 किलो हो गया है। वस्तुतः उपभोक्ता वस्तुओं की स्फीति को रोकने के लिए आपूर्ति स्तर पर ठोस उपायों की आवश्यकता है।